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________________ देवगति अध्ययन देवगति में प्राप्त देव प्रमुखरूपेण चार प्रकार के होते हैं - १. भवनपति, २. वाणव्यन्तरं, ३. ज्योतिष्क एवं ४. वैमानिक । किन्तु देव शब्द का प्रयोग भिन्न अर्थ में भी हुआ है। इसीलिए स्थानांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में देव पाँच प्रकार के कहे गए हैं- १. भव्यद्रव्यदेव, २. नरदेव, ३. धर्मदेव, ४. देवाधिदेव एवं ५. भावदेव । इनमें भावदेव ही एक ऐसा भेद है जो देवगति को प्राप्त देवों के लिए प्रयुक्त हुआ है। भव्यद्रव्यदेव उन तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं मनुष्यों को कहा गया है जो देवगति में उत्पन्न होने योग्य हैं। नरदेव शब्द का प्रयोग चातुरन्त चक्रवर्ती राजाओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। पाँच समिति एवं तीन गुप्तियों का पालन करने वाले अनगारों को धर्मदेव कहा गया है। देवाधिदेव शब्द का प्रयोग केवलज्ञान एवं केवलदर्शन के धारक अरिहन्त भगवन्तों के लिए हुआ है। क्योंकि ये देवों के भी देव हैं। इस प्रकार देव शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। वेदों में दान देने, द्योतित (प्रकाशित) होने एवं प्रकाशित करने वाले को देव कहा गया है- देवो दानाद् वा द्योतनाद् वा दीपनाद् वा । इस प्रकार विभिन्न अर्थों में उपर्युक्त पाँचों देव हैं। इन पाँचों में सबसे अल्प नरदेव हैं। देवाधिदेव उनसे संख्यातगुणे हैं। धर्मदेय उनसे संख्यातगुणे, भव्यद्रव्यदेव उनसे भी असंख्यातगुणे एवं भावदेव उनसे भी असंख्यातगुणे हैं। इन पाँचों देवों की कायस्थिति एवं अन्तरकाल का भी इस अध्ययन में संकेत है। कायस्थिति के लिए इसी अनुयोग का स्थिति अध्ययन द्रष्टव्य है। भावदेव अर्थात् देवगति को प्राप्त चतुर्विध देवों में वैमानिक देव सबसे अल्प हैं। उनसे भवनवासी एवं वाणव्यन्तर देव उत्तरोत्तर असंख्यात्तगुणे हैं। सबसे अधिक ज्योतिष्क देव हैं जो वाणव्यन्तरों से संख्यातगुणे हैं। वैमानिकों में सबसे अल्प अनुत्तरौपपातिक देव हैं। उनसे नवग्रैवेयक संख्यातगुणे हैं। अच्युत से आनत तक (१२वें से ९वें देवलोक तक) उत्तरोत्तर संख्यातगुणे हैं। उसके पश्चात् आठवें से पहले देवलोक तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं। भवनपति देव अधोलोक में, वाणव्यन्तर वनों के अन्तरों में (मध्य में), ज्योतिष्क तिर्यक् लोक में एवं वैमानिक देव ऊर्ध्व लोक में रहते हैं। भवनपति देव प्रमुखतः १० प्रकार के हैं - १. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. स्वर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार, ५. अग्निकुमार, ६, द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. दिशाकुमार, ९. पवनकुमार एवं १०. स्तनितकुमार वाणव्यन्तर देव के प्रमुखतः ८ प्रकार है-१. किन्नर, २. किंपुरुष, २. महोरग, ४. गन्धर्व, ५. यक्ष, ६. राक्षस, ७. भूत एवं ८. पिशाच । ज्योतिष्क देव पाँच प्रकार के हैं - १. चन्द्र, २. सूर्य, ३. ग्रह, ४. नक्षत्र और ५. तारा । वैमानिक देवों में १२ देवलोक ९ नवग्रैवेयक एवं ५ अनुत्तर विमान कहे गए हैं। १२ देवलोक इस प्रकार हैं- १. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्मलोक, ६. लांतक, ७. महाशुक्र, ८. सहस्रार, ९. आनत, १०. प्राणत, ११. आरण एवं १२. अच्युत । इनके अतिरिक्त देवों के और भी प्रकार हैं। असुरकुमार भवनपति की जाति के १५ परमाधार्मिक देव कहे गए हैं- १. अम्ब, २. अम्बरिष ३. श्याम, ४. शबल, ५. रौद्र, ६. उपरौद्र, ७. काल, ८. महाकाल, ९. असिपत्र, १०. धनु, ११. कुम्भ, १२. बालुका, १३. वैतरणी, १४. खरस्वर एवं १५. महाघोष । तीन किल्विषक देव कहे गए हैं जो विभिन्न वैमानिक कल्पों की नीचे की प्रतर में रहते हैं - १. तीन पल्योपम की स्थिति वाले, २. तीन सागरोपम की स्थिति वाले एवं ३ तेरह सागरोपम की स्थिति वाले आठ लोकान्तिक देव है जो आठ कृष्णराजियों के आठ अवकाशान्तरों में रहते हैं - १. सारस्वत, २. आदित्य, ३. वह्नि, ४. वरुण, ५. गर्दतीय, ६. तुषित, ७. अव्याबाध, ८. अग्न्यर्च । एक मरुत् भेद का उल्लेख मिलने से नौ लोकान्तिक देव माने गए हैं। इनके अलावा जृम्भक आदि दस विशिष्ट व्यन्तर देव होते हैं। देवों की विभिन्न श्रेणियों है। कोई इन्द्र होता है, कोई सामान्य देव होता है, कोई लोकपाल होता है, कोई आधिपत्य करनेवाले देव होते हैं। इस प्रकार देव विभिन्न स्तर के हैं। कुल ३२ देवेन्द्र (इन्द्र) कहे गए हैं-१. चमर, २. बली, ३. धारण, ४. भूतानन्द, ५. वेणुदेव, ६. वेणुदाली, ७. हरिकाना, ८. हरिस्सह, ९. अग्निशिख, 90. अग्निमाणव, ११. पूर्ण, १२. वशिष्ठ, १३. जलकान्त, १४. जलप्रभ, १५. अमितगति, १६. अमितवाहन, १७. वेलम्ब, १८. प्रभञ्जन, १९. घोष, २०. महाघोष, २१. चन्द्र, २२. सूर्य, २३. शक्र, २४. ईशान, २५ सनत्कुमार, २६. माहेन्द्र, २७. ब्रह्म, २८. लान्तक, २९. महाशुक्र, ३०. सहस्रार, ३१. प्राणत एवं ३२. अच्युत । इनमें से चमर से लेकर महाघोष पर्यन्त भवनपति इन्द्र हैं। शक्र आदि दस वैमानिक कल्पों के इन्द्र हैं। नवग्रैवेयक एवं ५ अनुत्तर विमान के देव अहमिन्द्र कहे गए हैं अर्थात् वे इन्द्र एवं पुरोहित रहित होते हैं। इन ३२ इन्द्रों में वाणव्यन्तरेन्द्रों की गणना नहीं हुई है। चन्द्र एवं सूर्य ये दोनों ज्योतिष्क इन्द्र हैं। असुरेन्द्र असुरकुमारराज धमर से लेकर महाघोष इन्द्र पर्यन्त समस्त इन्द्रों के तथा देवेन्द्र देवराज शक्र से लेकर अच्युतेन्द्र पर्यन्त इन्द्रों के त्रयस्त्रिंशक देव कहे गए हैं। ये तैंतीस विशिष्ट प्रकार के देव हैं। विभिन्न इन्द्रों के सामानिक (सामान्य) देवों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है, यथा देवेन्द्र शक्र के सामानिक देवों की संख्या ८४ हजार है जबकि देवेन्द्र माहेन्द्र के सामानिक देवों की संख्या ७० हजार है। चमरेन्द्र के सामानिक देवों की संख्या ६४ हजार एवं वैरोचनेन्द्र बली के इन देवों की संख्या ६० हजार ही है। असुरकुमार देवों पर 90 देव आधिपत्य करते हुए विचरण करते हैं, यथा- १. असुरेन्द्र असुरराज चमर, २. सोम, ३. यम, ४. वरुण, ५. वैश्रमण, ६. वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बली, ७. सोम, ८. यम, ९. वरुण एवं १०. वैश्रमण। इनमें प्रारम्भ के पाँच दक्षिण दिशा के देव हैं तथा अन्तिम पाँच उत्तर दिशा के हैं। चमर एवं बली इन्द्र हैं तथा दोनों के चार-चार लोकपाल हैं। इसी प्रकार नागकुमार देवों पर भी 90 देव आधिपत्य करते हैं जिनमें धरण एवं भूतानन्द दो इन्द्र एवं शेष लोकपाल हैं। सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार एवं स्तनितकुमार देवों पर उनसे सम्बद्ध दो-दो इन्द्र एवं चार-चार लोकपाल आधिपत्य करते हैं। व्यन्तर देवों के पिशाच आदि आठ प्रकार के देवों पर उनसे सम्बद्ध (१३८२)
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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