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लक्खणवंजणगुणोववेया सुजाय सुविभत्त सुरूवगा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।
ते णं मणुया हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरनिग्घोसा छायाउज्जोतियंगमंगा,
वेज्जरिसभनारायसंघयणा, समचउरंससंठाणसंठिया, सिणिद्धछवी णिरायंका, उत्तमपसत्थ अइसेसनिरुवमतणू, जल्लमलकलंक सेयरयदोस वज्जियसरीरा,
अणुलोमवाउवेगा कंकणग्गहणी निरुवलेवा,
कवोतपरिणामा, सउणिव्व पोसचिठेतरोरूपरिणया,
विग्गहिय उन्नयकुच्छी, पउमुप्पलसरिस गंधणिस्सास अट्ठधणुसयं ऊसिया।
सुरभिवदणा,
तेसिं मणुयाणं चउसळिं पिट्टिकरंडगा पण्णत्ता, समणाउसो ! ते णं मणुया पगइभद्दगा, पगइविणीयगा, पगइउवसंता, पगइपयणु कोह-माण-माया-लोभा मिउमद्दव संपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणीया अप्पिच्छा असंनिहिसंचया अचंडा विडिमंतरपरिवसणा जहिच्छिय कामगमिणो य ते मणुयगणा पण्णत्ता
समणाउसो! प. तेसिं णं भन्ते ! मणुयाणं केवइकालस्स आहारट्ठे
समुप्पज्जइ? उ. गोयमा ! चउत्थभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ।
-जीवा. पडि. ३, सु. १११/१३ १०२. एगोरुय दीवस्स इत्थियाणं आयारभाव पडोयार परूवणं-
प. एगोरुयमणुई णं भन्ते ! केरिसए आयारभावपडोयारे
पण्णत्ते? उ. गोयमा ! ताओ णं मणुईओ सुजायसव्वंगसुंदरीओ, पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता, अच्चंत विसप्पमाणा पउम सुमाल कुम्मसंठिय विसिट्ठ चलणाओ, उज्जुमिउय पीवर निरंतर पुट्ठ सोहियंगुलीओ,
द्रव्यानुयोग-(२) वे मनुष्य लक्षण, व्यंजन और गुणों से युक्त होते हैं, वे सुन्दर और सविभक्त स्वरूप वाले होते हैं। वे प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होते हैं। वे मनुष्य हंस जैसे स्वर वाले, क्रौंच जैसे स्वर वाले, नंदी (बारह वाद्यों का सम्मिश्रित स्वर) जैसे घोष करने वाले, सिंह के समान स्वर वाले और गर्जना वाले, मधुर स्वर वाले, मधुर घोष वाले, सुस्वर वाले, सुस्वर और सुघोष वाले, अंग-अंग में कान्ति वाले, वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले, समचतुरनसंस्थान वाले, स्निग्धछवि वाले, रोगादि रहित, उत्तम प्रशस्त अतिशययुक्त
और निरुपम शरीर वाले, स्वेद (पसीना) आदि मैल के कलंक से रहित और स्वेद-रज आदि दोषों से रहित शरीर वाले, उपलेप से रहित, अनुकूल वायु वेग वाले, कंक पक्षी की तरह निर्लेप गुदाभाग वाले, कबूतर की तरह सब पचा लेने वाले, पक्षी की तरह मलोत्सर्ग के लेप से रहित अपानदेश वाले, सुन्दर पृष्ठभाग उदर और जंघा वाले, उन्नत और मुष्टिग्राह्य कुक्षि वाले, प्रद्म कमल जैसी सुगंधयुक्त श्वासोच्छ्वास से सुगंधित मुख वाले और एक सौ आठ धनुष की ऊँचाई वाले मनुष्य
होते हैं। । हे आयुष्मन् श्रमण! उन मनुष्यों के चौंसठ पृष्ठकरंडक (पसलियाँ) कही गई हैं। वे मनुष्य स्वभाव से भद्र, स्वभाव से विनीत, स्वभाव से शान्त, स्वभाव से अल्प क्रोध-मान माया-लोभ वाले, मृदुता
और मार्दव से सम्पन्न होते हैं, अल्लीन (संयत चेष्टा वाले) हैं, भद्र, विनीत, अल्प इच्छा वाले, संचय-संग्रह न करने वाले, क्रूर परिणामों से रहित, वृक्षों की शाखाओं के अन्दर रहने वाले तथा इच्छानुसार विचरण करने वाले हैं।
हे आयुष्मन् श्रमण! वे एकोरुकद्वीप के मनुष्य कहे गए हैं। प्र. भन्ते ! उन मनुष्यों को कितने काल के अन्तर से आहार की
अभिलाषा होती है? उ. गौतम ! उन मनुष्यों को चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिन छोड़कर
दूसरे दिन आहार की अभिलाषा होती है। १०२. एकोरुक द्वीप की स्त्रियों के आकार-प्रकारादि का प्ररूपण
प्र. भन्ते ! इस एकोरुक-द्वीप की स्त्रियों का आकार-प्रकार भाव
कैसा कहा गया है? उ. गौतम ! वे स्त्रियाँ श्रेष्ठ अवयवों द्वारा सर्वांग सुन्दर हैं,
महिलाओं के श्रेष्ठ गुणों से युक्त हैं। चरण-अत्यन्त विकसित पद्म कमल की तरह सुकोमल और कछुए की तरह उन्नत होने से सुन्दर आकार के हैं। पाँवों की अंगुलियाँ-सीधी, कोमल, स्थूल, निरन्तर पुष्ट
और मिली हुई हैं। नख-उन्नत, रति देने वाले, तलिन (पतले) ताम्र जैसे रक्त, स्वच्छ एवं स्निग्ध हैं। पिण्डलियाँ-रोम रहित, गोल, सुन्दर सुस्थित, उत्कृष्ट शुभलक्षणवाली और प्रीतिकर होती हैं।
उन्नयरइय तलिणतंबसुइणिद्धणखा,
रोमरहित वट्ट लट्ठ संठियअजहण्ण पसत्थ लक्षण अकोप्पजंघयुगला,