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________________ मनुष्य गति अध्ययन इस अध्ययन में प्रमुख रूप से अग्राङ्कित विषय निरूपित हैं (१) विविध विवक्षाओं से पुरुष के तीन, चार आदि प्रकार (२) एकोरुक द्वीप के पुरुष एवं स्त्रियों के शारीरिक गठन, आहार, आवास आदि के अतिरिक्त वहाँ पर अन्य प्राणियों, वस्तुओं आदि के सम्बन्ध में कथन (३) स्त्री, भृतक , सुत, प्ररार्पक, तैराक राजा, माता-पिता आदि के चार प्रकार (४) मनुष्य की अवगाहना एवं स्थिति। मनुष्य के जन्म, मरण आदि के सम्बन्ध में गर्भ एवं वुक्कंति अध्ययन द्रष्टव्य हैं। मनुष्य के ज्ञान, योग, उपयोग, लेश्या आदि के लिए तत्तत् अध्ययन द्रष्टव्य हैं। यहाँ इस अध्ययन में मनुष्य से सम्बद्ध वह वर्णन समाविष्ट है जिसका अन्यत्र निरूपण नहीं हुआ है। मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-(१) गर्भज एवं (२) सम्मूर्छिम। सम्मूच्छिम मनुष्य तो अत्यन्त अविकसित होता है तथा चौथी पर्याप्ति पूर्ण करने के पूर्व ही मरण को प्राप्त हो जाता है। इसकी उत्पत्ति मल-मूत्र, श्लेष्म, वीर्य आदि १४ अशुचि स्थानों पर होती है। गर्भज मनुष्य भी तीन प्रकार के होते हैं-कर्मभूमि में उत्पन्न, अकर्मभूमि में उत्पन्न तथा ५६ अन्तर्वीपों में उत्पन्न । पाँच भरत, पाँच ऐरवत एवं पाँच महाविदेह ये १५ कर्म भूमियाँ मानी गई हैं। अकर्म भूमि के ३० भेद हैं-५ हैमवत, ५ हैरण्यवत, ५ हरिवर्ष, ५ रम्यक् वर्ष, ५ देवकुरु एवं ५ उत्तर कुरु। गर्भज मनुष्य पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक दोनों प्रकार का होता है, जबकि सम्मूर्छिम मनुष्य मात्र अपर्याप्तक ही होता है। वेद एवं लिङ्ग की अपेक्षा मनुष्य तीन प्रकार का होता है-(१) पुरुष, (२) स्त्री एवं (३) नपुंसक। प्रस्तुत अध्ययन में इसी मनुष्य पुरुष का विविध प्रकारों से निरूपण किया गया है, किन्तु आनुषङ्गिक एवं लाक्षणिक रूप से यह पुरुष शब्द मनुष्य का ही द्योतक है, जिसमें स्त्री एवं नपुंसकों का भी ग्रहण हो जाता है। जैसे पुरुष तीन प्रकार के कहे गए-(१) सुमनस्क, (२) दुर्मनस्क एवं (३) नो सुमनस्क-नो दुर्मनस्क। ये तीनों भेद मात्र पुरुष पर घटित न होकर मनुष्य मात्र पर घटित होते हैं। इसलिए यहाँ पुरुष शब्द से स्त्री एवं नपुंसक रूप मनुष्यों का भी ग्रहण हो जाता है। पुरुष शब्द का प्रयोग नाम, स्थापना एवं द्रव्य के भेद से भिन्न अर्थ में भी होता है। कहीं विवक्षा भेद से ज्ञान पुरुष, दर्शन पुरुष एवं चरित्र पुरुष भी कहे गए हैं। पुरुष के उत्तम, मध्यम एवं जघन्य भेद भी किए गए हैं। उत्तम पुरुष के पुनः धर्मपुरुष-अर्हत्, भोग पुरुष-चक्रवर्ती एवं कर्मपुरुषवासुदेव भेद किए गए हैं। मध्यम पुरुष के उग्र, भोग एवं राजन्य पुरुष तथा जघन्य पुरुष के दास, भृतक एवं भागीदार पुरुष भेद किए गए हैं। गमन की विवक्षा से, आगमन की विवक्षा से, ठहरने की विवक्षा से पुरुष के सुमनस्क, दुर्मनस्क एवं नो सुमनस्क-नो दुर्मनस्क भेद किए गए हैं। ये ही तीनों भेद बैठने, हनन करने, छेदन करने, बोलने, भाषण करने, देने, भोजन करने, प्राप्ति अप्राप्ति, पान करने, सोने, युद्ध करने, जीतने, पराजित करने, सुनने, देखने, सूंघने, आस्वाद लेने एवं स्पर्श करने की विवक्षा से भी किए गए हैं। कोई पुरुष इन क्रियाओं को करके एवं कोई नहीं करके सुमनस्क (हर्षित मन वाला) होता है। कोई इन्हें करके अथवा नहीं करके दुर्मनस्क (खिन्न मन वाला) होता है। कुछ पुरुष अथवा मनुष्य ऐसे भी हैं जो न सुमनस्क होते हैं और न दुर्मनस्क होते हैं, अपितु वे उदासीन चित्त वाले रहते हैं। यह सुमनस्कता, दुर्मनस्कता एवं नोसुमनस्कता- नोदुर्मनस्कता इन विभिन्न क्रियाओं के भूत, वर्तमान एवं भविष्य में होने एवं न होने के आधार पर होती देखी जाती है। इस वर्णन से मनुष्य किं वा जीव की भिन्न-भिन्न रुचि एवं प्रकृति होने का भी संकेत मिलता है तथा यह भी ज्ञात होता है कि जीव अपने संस्कारों के अनुसार इन क्रियाओं के होने या न होने में प्रसन्न अथवा तटस्थ रहता है। पुरुष का अनेक प्रकार से चतुर्भङ्गी में निरूपण किया गया है, यथा कुछ पुरुष जाति एवं मन दोनों से शुद्ध होते हैं, कुछ जाति से शुद्ध एवं अशुद्ध मन वाले होते हैं, कुछ जाति से अशुद्ध एवं मन से शुद्ध होते हैं, कुछ जाति एवं मन दोनों से अशुद्ध होते हैं। इस प्रकार की चतुर्भङ्गी का निरूपण जाति के साथ संकल्प, प्रज्ञा, दृष्टि, शीलाचार एवं पराक्रम का भी हुआ है। शरीर से पवित्रता एवं अपवित्रता के भंगों का कथन मन, संकल्प, प्रज्ञा, दृष्टि आदि की पवित्रता व अपवित्रता के साथ हुआ है। इसी प्रकार ऐश्वर्य के उन्नत एवं प्रणत होने का कथन मन, प्रज्ञा, दृष्टि आदि की उन्नतता एवं प्रणतता के साथ चार भंगों में हुआ है। शरीर की ऋजुता एवं वक्रता के साथ मन, संकल्प, प्रज्ञा, दृष्टि, व्यवहार एवं पराक्रम की ऋजुता एवं वक्रता के भी चार-चार भंग बने हैं। शरीर, कुल आदि की उच्चता एवं नीचता के साथ विचारों की उच्चता एवं नीचता के साथ भी चार भंग निरूपित हैं। सत्य एवं असत्य बोलने, परिणमन करने, सत्य एवं असत्य रूप वाले, मन वाले, संकल्प वाले, प्रज्ञा वाले, दृष्टि वाले आदि पुरुषों का भी विविध प्रकार से चार भंगों में निरूपण हुआ है। इसी प्रकार आर्य एवं अनार्य की विवक्षा से, प्रीति एवं अप्रीति की विवक्षा से, आत्मानुकम्प एवं परानुकम्प के भेद की विवक्षा से, आत्म-पद के अंतकरादि की विवक्षा से, मित्र-अमित्र के दृष्टान्त द्वारा, स्वपर का निग्रह करने आदि की विवक्षा से पुरुष को चार प्रकार का प्रतिपादित किया गया है। जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत एवं शील से सम्पन्न होने एवं न होने के आधार पर पुरुष की २१ चतुर्भङ्गियों का निरूपण महत्वपूर्ण है। दीन-अदीन परिणति को लेकर १७ चौभंङ्गी, परिज्ञात-अपरिज्ञात को लेकर ३ चौभंगी, सुगत-दुर्गत की अपेक्षा ५ चौभंगी, कृश एवं दृढ़ की अपेक्षा ३ चौभंगी का निरूपण हुआ है। अपने एवं दूसरों के दोष देखने एवं न देखने, उनकी उदीरणा करने एवं न करने, उनका उपशमन करने एवं न करने के आधार पर भी चतुर्भङ्गी बनी हैं। उदय-अस्त की विवक्षा से, आख्यायक एवं प्रविभाक की विवक्षा से, अर्थ (कार्य) एवं अभिमान की विवक्षा से भी पुरुष के चार (१२९६)
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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