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________________ १२८६ नालियप. नालिए णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे, अणेगजीवे? उ. गोयमा ! एगजीवे, एवं कुंभि उद्देसगवत्तव्वया निरवेससा भाणियव्वा। -विया.स.११, उ.५,सु.१ पउम- . प. पउमेणं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे,अणेगजीवे? उ. गोयमा ! एगजीवे, एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया निरवसेसा भाणियव्या। -विया.स.११,उ.६.सु.१ कण्णियप. कण्णिए णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे,अणेगजीवे? उ. गोयमा ! एगजीवे, एवं चेव निरवसेसं भाणियव्वं। -विया. स.११, उ.७, सु.१ नलिणप. नलिणं णं भन्ते ! एगपत्तए किं एगजीवे, अणेगजीवे? द्रव्यानुयोग-(२) ) नालिकप्र. भंते ! एक पत्ते वाला नालिक (नाडाक) एक जीव वाला है या ___अनेक जीव वाला है? उ. गौतम ! वह एक जीव वाला है। कुम्भिक उद्देशक के अनुसार यहाँ समग्र कथन करना चाहिए। पद्मप्र. भन्ते ! एक पत्र वाला पद्म एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला है? उ. गौतम ! वह एक जीव वाला है। उत्पल उद्देशक के अनुसार इसका समग्र कथन करना चाहिए। कर्णिकाप्र. भन्ते ! एक पत्ते वाली कर्णिका एक जीव वाली है या अनेक जीव वाली है? उ. गौतम ! वह एक जीव वाली है। इसका समग्र वर्णन उत्पल उद्देशक के समान करना चाहिए। नलिनप्र. भन्ते ! एक पत्ते वाला नलिन (कमल) एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला है? उ. गौतम ! वह एक जीव वाला है। इसका समग्र वर्णन उत्पल उद्देशक के समान अनन्त बार • उत्पन्न हुए हैं पर्यन्त करना चाहिए। ३७. शाली-व्रीहि आदि के मूल जीवों का उत्पातादि बत्तीस द्वारों के प्ररूपणराजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछाप्र. भन्ते ! शाली, व्रीहि, गेहूँ, जौ, जवजव इन सब धान्यों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं तो भंते ! वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद के अनुसार इनका उपपात कहना चाहिए। विशेष-देवगति से आकर ये उत्पन्न नहीं होते। प्र. भन्ते ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? उ. गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इसका अपहार उत्पल उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। प्र. भन्ते ! इन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही उ. गोयमा। एगजीवे। एवं निरवसेसं जाव अणंतखुत्तो। -विया.स.११,उ.८, सु.१ ३७. साली-वीहिआईणं मूलजीवाणं उववायाइ बत्तीसद्दारेहिं परूवणंरायगिहे जाव एवं वयासिप. अह भंते ! साली वीहि-गोधूम जव-जवजवाणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जति? किं नेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मणुस्सेहिंतो उववज्जति, देवेहिंतो उववज्जंति? उ. गोयमा !जहा वक्कंतीए तहेव उववाओ। णवरं-देववज्ज। प. ते णं भंते !जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति? उ. गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति। अवहारोजहा उप्पलुद्देसे। प. एएसि णं भंते ! जीवाणं के महालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? उ. गोयमा !जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भाग, उक्कोसेणं धणुपुहत्तं। उ. गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उत्कृष्ट धनुष पृथक्त्व की कही गई है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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