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________________ तिर्यञ्च गति अध्ययन इच्चेएहि तिहि ठाणेहिं महाबुद्विकाए सिया। ९. अहिगरणीए बाउकायस्स वक्कमण-विनास परूवणंप. अत्थि णं भन्ते ! अधिकरणिंसि वाउयाए वक्कमइ ? उ. हंता गोयमा! अस्थि । " प से भन्ते ! किं पुट्ठे उद्दाइ, अपुट्ठे उद्दाइ ? उ. गोयमा ! पुट्ठे उद्दाइ, नो अपुट्ठे उद्दाइ । प. से भन्ते ! किं ससरीरे निक्खमइ, असरीरे निक्खमइ ? - ठाणं. अ. ३, सु. १८२ उ. गोयमा ! सिय ससरीरे निक्खमइ, सिय असरीरे निक्सम प से केणट्टेण भन्ते ! एवं वुच्चइ 'सिय ससरीरे निक्खमइ, सिय असरीरे निक्खमइ ?' उ. गोवमा बाउकायस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णता. तं जंहा १. ओरालिए, २ . वेउव्विए, ३. तेयए, ४. कम्मए ओरालिय वेउध्वियाई विचजहाय तेयकम्मएहिं निवखमड, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ “सिय ससरीरे निक्खमइ, सिय असरीरे निक्खमइ ।" -विया. स.१६, उ. १, सु. ३-५ १०. अचित्त वाउकाय पगारा पंचविहा अचित्ता वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा १. अक्कंते, २. धते, ३. पीलिए, ४. सरीराणुगए. ५. समुच्छि । - ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४४४ ११. एगिंदिय जीवे सिय लेस्साइ बारसदाराणं परूवणं रायगिहे जाय एवं क्यासि प. १. सिय भते ! जाय चत्तारि पंच पुढविकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधति बाँधत्ता तओ पच्छा आहारेति था, परिणामेंति वा, सरीरं वा बंधंति ? उ. गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे, पुढविकाइया णं पत्तेयाहारा, पत्तेयपरिणामा, पत्तेयसरीरं बंधंति बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा, पारिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति । १२६५ इन तीन कारणों से महावृष्टि होती है। ९. अधिकरणी से वायुकाय की उत्पत्ति और विनाश का प्ररूपणप्र. भन्ते क्या अधिकरण (एहरन) पर (हथौड़ा मारते समय) वायुकाय उत्पन्न होता है ? उ. हाँ, गौतम ! वायुकाय उत्पन्न होता है। प्र. भन्ते उस वायुकाय का (किसी दूसरे पदार्थ के साथ) स्पर्श होने पर वह मरता है या बिना स्पर्श हुए ही मरता है ? उ. गौतम (उसका दूसरे पदार्थ के साथ) स्पर्श होने पर ही वह मरता है, बिना स्पर्श हुए नहीं मरता है। प्र. भन्ते वह (मृत वायुकाय) सरीरसहित ( भवान्तर में जाता है या शरीररहित जाता है ? उ. गौतम कदाचित् शरीर सहित निकलता है और कदाचित शरीर रहित होकर भी निकलता है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'कदाचित् शरीर सहित निकलता है और कदाचित् अशरीर निकलता है'? उ. गौतम ! वायुकाय के चार शरीर कहे गए हैं, यथा १. औदारिक, २. वैक्रिय, ३. तैजस्, ४. कार्मण | औदारिक और वैकिय शरीर को छोड़कर तैजस और कार्मण शरीर सहित निकलता है। इस कारण से गौतम ऐसा कहा जाता है कि "कदाचित् सशरीर निकलता है और कदाचित् अशरीर निकलता है।" १०. अचित्त वायुकाय के प्रकार अचित्त वायुकाय पांच प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. आक्रान्त - पैरों को पीट-पीट कर चलने से उत्पन्न वायु । २. ध्मात - धौंकनी आदि से उत्पन्न वायु । ३. पीड़ित गीले कपड़ों के निचोड़ने आदि से उत्पन्न वायु । ४. शरीरानुगत - डकार, उच्छ्वास आदि से उत्पन्न वायु । ५. संमूर्च्छिम- पंखा आदि चलाने से उत्पन्न वायु । ११. एकेन्द्रिय जीवों में स्यात् लेश्यादि बारह द्वारों का प्ररूपणराजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछाप्र. १. भन्ते ! क्या कदाचित् (दो) यावत् चार पांच पृथ्वीकायिक मिलकर साधारण शरीर बांधते हैं और बांध कर पीछे आहार करते हैं, फिर उस आहार का परिणमन करते हैं इसके बाद फिर शरीर का (विशिष्ट) बंध करते हैं? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं, क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येक पृथक्-पृथक् आहार करने वाले हैं और उस आहार को पृथक्-पृथक् परिणत करते हैं, इसलिए वे पृथक् पृथक शरीर बांधते हैं और बांधकर पीछे आहार करते हैं, उसे परिणमाते है, इसके बाद फिर शरीर बांधते हैं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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