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________________ ( १२५३ ) [नरक गति अध्ययन ३४. णिरयगई अज्झयणं ३४. नरक गति-अध्ययन सूत्र सूत्र १. नरक गमन के कारणों का प्ररूपण (सुधर्मा स्वामी) मैंने केवलज्ञानी महर्षि महावीर स्वामी से पूछा था"नैरयिक किस प्रकार के अभिताप से युक्त हैं ? हे मुने ! आप जानते हैं इसलिए मुझ अज्ञात को कहें कि-'मूढ़ अज्ञानी जीव किस कारण से नरक पाते है ?॥१॥ इस प्रकार मेरे (सुधर्मा स्वामी) द्वारा पूछे जाने पर महाप्रभावक आशुप्रज्ञ काश्यपगोत्रीय (भगवान महावीर) ने यह कहा “यह नरक दुःखदायक एवं विषम है वह दुष्प्रवृत्ति करने वाले अत्यन्त दीन जीवों का निवासस्थान है, वह कैसा है मैं आगे बताऊँगा' ॥२॥ इस लोक में जो अज्ञानी जीव अपने जीवन के लिए रौद्र पापकर्मों को करते हैं, वे घोर निविड़ अन्धकार से युक्त तीव्रतम ताप वाले नरक में गिरते हैं॥३॥ १. निरयगमणस्स कारणानि परूवणं पुच्छिस्स हं केवलियं महेसिं, कह भियावा णरगा पुरत्था। अजाणतो मे मुणि बूहि जाणं, कहे णु बाला णरगं उवेंति ॥१॥ एवं मए पुढे महाणुभागे, इणमब्बवी कासवे आसुपण्णे। पवेदइस्सं दुहमट्ठदुग्गं, आईणियं दुक्कडियं पुरत्था ॥२॥ जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाइं कम्माइं करेंति रुद्दा। ते घोररूवे तिमिसंधयारे, तिव्वाभितावे नरए पडंति ॥३॥ तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसई आयसुहं पडुच्चा। जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खई सेयवियस्स किंचि ॥४॥ पागब्भिपाणे बहुणं तिवाई, अणिब्बुडे घातमुवेइ बाले। णिहो णिसं गच्छइ अंतकाले, अहो सिरं कटु उवेइ दुग्गं ॥५॥ -सूय. सु. १,अ.५, उ.१,गा.१-५ २. णिरय पुढवीसु-पुढवीआईणं फास परूवणं प. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं . पुढविफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरति? उ. गोयमा ! अणिठे जाव अमणामं । जो जीव अपने विषयसुख के निमित्त त्रस और स्थावर प्राणियों की तीव्र परिणामों से हिंसा करता है, अनेक उपायों से प्राणियों का उपमर्दन करता है,अदत्त को ग्रहण करने वाला है और जो श्रेयस्कर सीख को बिल्कुल ग्रहण नहीं करता है॥४॥ जो पुरुष पाप करने में धृष्ट है, अनेक प्राणियों का घात करता है, पापकार्यों से निवृत्त नहीं है, वह अज्ञानी जीव अन्तकाल में नीचे घोर अन्धकार युक्त नरक में चला जाता है और वहाँ नीचा शिर एवं ऊँचे पाँव किये हुए अत्यन्त कठोर वेदना का वेदन करता है॥५॥ एवंजाव अहेसत्तमाए। प. इमीसे णं भन्ते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं आउफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति? उ. गोयमा ! अणिठे जाव अमणाम। २. नरक पृथ्वियों में पृथ्वी आदि के स्पर्श का प्ररूपणप्र. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं? उ. गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमणाम भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के जलस्पर्श का अनुभव करते हैं? उ. गौतम ! अनिष्ट यावत् अमणाम जलस्पर्श का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार तेजस्, वायु और वनस्पति के स्पर्श के लिए भी अधःसप्तम पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। ३. नरकों में पूर्वकृत दुष्कृत कर्म फलों का वेदन इसके पश्चात् अब मैं शाश्वत दुःख देने के स्वभाव वाले नरक के सम्बन्ध में यथार्थरूप से अन्य बातों को कहूँगा जहाँ पर दुष्कृत पाप कर्म करने वाले अज्ञानी जीव किस प्रकार (पूर्व जन्म में) कृत स्वकर्मों का फल भोगते हैं ॥१॥ एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं तेउ-वाउ-वणप्फइफासंजाव अहेसत्तमाए पुढवीए। -जीवा. पडि. ३, सु. ९२ ३. णिरएसु पुरेकडाइंदुक्कडं कम्मफलाइंवेदेति अहावरं सासयदुक्खधम्म, तंभे पवक्खामि जहातहेणं। बाला जहा दुक्कडकम्मकारी, वेति कम्माई पुरेकडाई॥१॥ १. विया.स.१३,उ.४,सु.६-९
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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