SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वेदना अध्ययन १२३१ ६. जेणं नो पभू अहेरूवाइं अणालोएत्ताणं पासित्तए, एस णं गोयमा ! पभू वि अकामनिकरणं वेयणं वेदेति। प. अत्थि णं भंते ! पभू वि पकामनिकरणं वेयणं वेदेति? उ. गोयमा ! अत्थि। प. कहं णं भंते ! पभू विपकामनिकरणं वेयणं वेदेति? उ. गोयमा ! १.जे णं नो पभू समुदस्स पारं गमित्तए, २. जेणं नो पभू समुदस्स पारगयाइं रूवाई पासित्तए, ३. जेणं नो पभू देवलोगं गमित्तए, ४. जेणं नो पभू देवलोगगयाइं रूवाई पासित्तए, एस णं गोयमा ! पभू वि पकामनिकरणं वेयणं वेदेति। -विया. स.७, उ.७, सु. २५-२८ १४. विविहभावपरिणय जीवस्स एगभावाईरूवपरिणमनंप. एस णं भंते ! जीवे तीतमणतं सासयं समयं दुक्खी , समयं अदुक्खी, समयं दुक्खी वा, अदुक्खी वा पुव्विं च णं करणेणं अणेगभावं अणेगभूयं परिणाम परिणमइ, अह से वेयणिज्जे निज्जिण्णे भवइ तओ पच्छा एगभावे एगभूए सिया? उ. हता, गोयमा ! एस णं जीवे जाव अह से वेयणिज्जे निज्जिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगभावे एगभूए सिया। एवं पडुप्पन्नं सासयं समयं। ६. जो जीव अवलोकन किये बिना नीचे के पदार्थों को नहीं देख सकते हैं, ऐसे जीव समर्थ होते हुए भी अकामनिकरण वेदना वेदते हैं। प्र. भंते ! क्या समर्थ होते हुए भी जीव प्रकामनिकरण (तीव्र इच्छापूर्वक) वेदना को वेदते हैं ? उ. हां, गौतम ! वेदते हैं। प्र. भंते ! समर्थ होते हुए भी जीव प्रकामनिकरण वेदना को किस प्रकार वेदते हैं ? उ. गौतम ! १. जो समुद्र के पार जाने में समर्थ नहीं है, २. जो समुद्र के पार रहे हुए पदार्थों को देखने में समर्थ नहीं है, ३. जो देवलोक जाने में समर्थ नहीं है, ४. जो देवलोक में रहे हुए पदार्थों को देखने में समर्थ नहीं है, गौतम ! ऐसे जीव समर्थ होते हुए भी प्रकामनिकरण वेदना को वेदते हैं। १४. विविधभाव परिणत जीव का एकभावादिरूप परिणमनप्र. भंते ! क्या यह जीव अनन्त शाश्वत अतीत काल में समय समय पर दुःखी-अदुःखी (सुखी) या दुःखी-अदुःखी अथवा पूर्व के करण (प्रयोगकरण और विनसाकरण) से अनेकभाव और अनेकरूप परिणाम से परिणमित हुआ? इसके बाद वेदन और निर्जरा होती है और उसके बाद कदाचित् एकभाव वाला और एक रूप वाला होता है? उ. हां, गौतम ! यह जीव यावत् वेदन और निर्जरा करके उसके बाद कदाचित् एक भाव और एक रूप वाला होता है। इसी प्रकार शाश्वत वर्तमान काल के विषय में भी समझना चाहिए। इसी प्रकार अनन्त शाश्वत भविष्यकाल के विषय में भी समझना चाहिए। १५. जीव-चौबीस दंडकों में स्वयंकृत दुःख वेदन का प्ररूपण प्र. भंते ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख को वेदता है? उ. गौतम ! किसी दुःख को वेदता है और किसी को नहीं वेदता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'किसी को वेदता है और किसी को नहीं वेदता है?' उ. गौतम ! उदीर्ण (उदय में आए दुःख) को वेदता है, अनुदीर्ण को नहीं वेदता, इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"किसी को वेदता है और किसी को नहीं वेदता है।" दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भंते ! क्या (बहुत-से) जीव स्वयंकृत दुःख को वेदते हैं ? उ. गौतम ! किसी (दुःख) को वेदते हैं, और किसी (दु:ख) को नहीं वेदते हैं। एवं अणागयमणंतं सासयं समयं। -विया.स.१४,उ.४,सु.५-७ १५. जीव-चउवीसदंडएसु सयंकड दुक्खवेयण परूवणं प. जीवेणं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेएइ? उ. गोयमा ! अत्थेगइयं वेएइ, अत्थेगइयं नो वेएइ? प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ_ 'अत्थेगइयं वेएइ,अत्थेगइयं नो वेएइ ?' उ. गोयमा ! उदिण्णं वेएइ, अणुदिण्णं नो वेएइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"अत्थेगइयं वेएइ, अत्थेगइयं नो वेएइ।" दं.१-२४. एवं नेरइए जाव वेमाणिए। प. जीवा णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेति? उ. गोयमा ! अत्थेगइयं वेदेति,अत्थेगइयं नो वेदेति।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy