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________________ ( १२२८ - १२२८ द्रव्यानुयोग-(२) हे गौतम ! शीतवेदनीय वाले नरकों में नैरयिक इससे भी अधिक अनिष्टतर शीतवेदना का अनुभव करते हैं। गोयमा ! सीयवेयणिज्जेसु नरएसु नेरइया एत्तो अणिट्ठतरियं चेव सीयवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. ८९ (५) १०. नेरइएसुखुहप्पिवासा वेयणा परूवणंप. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं खुहप्पिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरति? उ. गोयमा ! एगमेगस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स असब्भावपट्ठवणाए सव्वोदही वा, सव्वपोग्गले वा आसगंसि पक्खिवेज्जा णो चेवणं से रयणप्पभाए पुढवीए नेरइए तित्ते वा सिया वितण्हे वा सिया, एरिसया णं गोयमा ! रयणप्पभाए नेरइया खुहप्पिवासं पच्चणुभवमाणा विहरंति। एवं जाव अहेसत्तमाए। -जीवा. पडि.३, सु.८८ ११. णेरइयेसुणरयपालेहिं कड वेयणाणं परूवणं हण छिंदह भिंदह णं दहेह, सद्दे सुणेत्ता परमधम्मियाणं। ते नारगाऊ भयभिन्नसण्णा, कंखंति के नाम दिसं वयामो ॥ इंगालरासिं जलियं सजोई, तओवमं भूमि अणोक्कमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरट्ठिईया । जइ ते सुयावेयरणीऽभिदुग्गा, निसोओ जहाखुर इव तिक्खसोया। तरंति ते वेयरणिं भिदुग्गं, उसुचोइया सत्तिसुहम्ममाणा॥ कीलेहिं विझंति असाहुकम्मा, नावं उवंते सइविप्पहूणा। अन्नेत्थ सूलाहिं तिसूलियाहिं, दीहाहिं विद्धूण अहे करेंति ॥ केसिंच बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलेंति महालयंसि। कलंबुयावालुय मुम्मुरे य, लोलंति पच्चंति या तत्थ अन्ने । असूरियं नाम महब्भितावं, अंधंतमं दुप्पयरं महंत। उड्ढं अहे य तिरिय दिसासु, समाहियो जत्थऽगणी झियाइ । जंसि गुहाए जलणेऽतियट्टे, अजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णे। सया य कलुणं पुणऽधम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म ॥ १०. नैरयिकों की भूख प्यास की वेदना का प्ररूपणप्र. भंते ! इस रलप्रभापृथ्वी के नैरयिक भूख और प्यास की कैसी वेदना का अनुभव करते हैं ? उ. गौतम ! असत्कल्पना से यदि किसी रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक के मुख में सब समुद्रों का जल तथा सब खाद्य पुद्गल डाल दिए जाय तो भी उस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक की भूख तृप्त नहीं हो सकती है और प्यास भी शान्त नहीं हो सकती है। हे गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक ऐसी तीव्र भूख प्यास की वेदना का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार अधःसप्तम (नरक) पृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। ११. नैरयिकों को नरकपालों द्वारा दत वेदनाओं का प्ररूपण नरक में उत्पन्न वे प्राणी मारो, काटो, छेदन करो, भेदन करो, जलाओ, इस प्रकार के परमाधार्मिक देवों के शब्दों को सुनकर भय से संज्ञाहीन हुए वह नारक यह चाहते हैं कि-'हम किसी दिशा में भाग जाएं।' जलती हुई और जाज्वल्यमान अंगारों की राशि के समान अत्यन्त गर्म नरक भूमि पर चलते हुए वे नैरयिक जलने पर करुण रुदन करते हैं, जो निरन्तर सुनाई पड़ती है, ऐसे घोर नरकस्थान में वे चिरकाल तक निवास करते हैं। तेज उस्तरे की तरह तीक्ष्ण धार वाली अतिदुर्गम वैतरणी नदी का नाम तो तुमने सुना होगा अतिदुर्गम उस वैतरणी नदी को बाण मारकर प्रेरित किये हुए और भाले से बींधकर चलाये हुए वे नैरयिक पार करते हैं। नौका की ओर आते हुए उन नैरयिकों को वे परमाधार्मिक कीलों से बींध देते हैं इससे वे स्मृति विहीन होकर किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं, तब अन्य नरकपाल उन्हें लम्बे-लम्बे शूलों और त्रिशूलों से बींधकर नीचे पटक देते हैं। किन्हीं नारकों के गले में शिलाएं बांधकर अगाध जल में डुबोते हैं और दूसरे उन्हें अत्यन्त तपी हुई कलम्बपुष्प के समान लाल सुर्ख रेत में और मुर्मुराग्नि में इधर उधर घसीटते हैं और भूजते हैं। असूर्य नारक नरक महाताप से युक्त घोर अन्धकार से पूर्ण दुष्प्रतर और विशाल है जिसमें ऊपर नीची एवं तिरछी सर्व दिशाओं में प्रज्वलित आग निरन्तर जलती रहती है। जिनकी जलती हुई गुफाओं में धकेला हुआ नैरयिक अपनी दुष्प्रवृत्तियों को नहीं जानता हुआ बेभान होकर जलता रहता है। जो सदैव करुणा पूर्ण और अधर्म का स्थान है तथा पापी जीवों को अनिवार्य रूप से मिलता है और उसका स्वभाव भी अत्यन्त दुःख देना है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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