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________________ ३०. कषाय अध्ययन : आमुख जीव के संसार-परिभ्रमण का प्रमुख कारण कषाय है। कषाय से ही पाप एवं पुण्य प्रकृतियों का स्थितिबंध होता है। यही कर्मबंध का प्रमुख हेतु है। प्रस्तुत अध्ययन में कषाय का कोई लक्षण नहीं दिया गया है किन्तु उस पर विविध दृष्टियों से विचार किया गया है जिससे कषाय का स्वरूप उद्घाटित होता है। कषाय के प्रमुख रूप से चार भेद हैं-१. क्रोध, २. मान, ३. माया एवं ४. लोभ । संग्रहनय की दृष्टि से क्रोधादि कषाय एक-एक हैं किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से उनके चार-चार भेद हैं-१. अनन्तानुबंधी, २. अप्रत्याख्यान, ३. प्रत्याख्यानावरण एवं ४. संज्वलन। इस प्रकार कषाय के सोलह भेद भी हैं। इन सोलह भेदों का इस अध्ययन में विविध दृष्टान्तों के आधार पर विवेचन किया गया है। यह भी स्पष्ट किया गया है कि अनन्तानुबंधी कषायों में काल करने वाला जीव नैरयिकों में उत्पन्न होता है, अप्रत्याख्यान कषायों में काल करने वाला जीव तिर्यञ्च में, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क में काल करने वाला जीव मनुष्यों में तथा संज्वलन कषायों में काल करने वाला जीव देवों में उत्पन्न होता है। क्रोधादि चारों कषाय चारों गतियों के चौबीस ही दण्डकों में उपलब्ध हैं। इन कषायों के एक भिन्न दृष्टि से चार-चार भेद और निरूपित हैं-१. आभोग निवर्तित, २. अनाभोग निवर्तित, ३. उपशांत और ४. अनुपशांत। जीव के क्रोधादि कषाय परिणाम को भाव कहते हैं। उस भाव के उदक के समान चार भेद होते हैं-१. कर्दमोदक समान, २. खंजनोदक समान, ३. बालुकोदक समान एवं ४. शैलोदक समान। इन भावों में प्रवर्तमान जीव काल करने पर क्रमशः नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवयोनि में उत्पन्न होता है। आवर्त को आधार बनाकर खरावर्त के समान क्रोध, उन्नतावर्त के समान मान, गूढावर्त के समान माया एवं आमिषावर्त के समान लोभ में काल करने वाले समस्त जीवों की उत्पत्ति नैरयिकों में बतलायी गई है। कषाय की उत्पत्ति मुख्य रूप से चार निमित्तों से होती है-१. क्षेत्र, २. वास्तु, ३. शरीर एवं ४. उपधि के निमित्तों से। किन्तु क्रोध की उत्पत्ति के दस स्थानों, मद की उत्पत्ति के आठ एवं दस स्थानों का भी उल्लेख है। करण, निवृत्ति, प्रतिष्ठान आदि के आधार पर भी प्रस्तुत अध्ययन में कषाय का विवेचन है। सकषायी जीव तीन प्रकार के हो सकते हैं-१. अनादि अपर्यवसित, २. अनादि सपर्यवसित एवं ३. सादि सपर्यवसित। अन्त में सकषायी, क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी एवं अकषायी जीवों का अल्पबहुत्व देकर अकषायी होने का महत्व प्रतिपादित किया गया है। (१०६८)
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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