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________________ १०३८ वक्खारअकम्मभूमिसु सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमिसु जे वि य नरा चाउरंत - चक्कवट्टी बलदेवा - वासुदेवा मंडलीया इस्सरा तलवरा सेणावई इब्मा सेट्ठी-रट्ठिया-पुरोहिया कुमारा दंडणायगा गणनायगा माडबिया सत्थवाहा कोडुबिया अमच्चा एए अन्ने य एवाई परिग्गहं संचिणंति। अणंत-असरणं दुरतं अधुवमणिच्चं असासयं, पावकम्म नेमं अवकिरियव्वं, विणासमूलं-वह-बंधपरिकिलेसबहुलं अणंत - संकिलेस-कारणं, ते तं धण-कणग-रयण-निचयं, पिंडी या चेव लोभघत्था संसार अइवयंति सव्वदुक्खसन्निलयणं। -पण्ह.आ.५, सु.९५ ५८. परिग्गहट्ठाए पयत्ताणि परिग्गहस्स य अट्ठाए सिप्पसयं सिक्खए बहुजणो कलाओ य बावत्तरि सुनिपुणाओ लेहाइयाओ सउणरूयावसाणाओ गणियप्पहाणाओ। चउसटिंठ च महिलागुणे रइजणणे सिप्पसेवं-असि-मसिकिसि-वाणिज्ज-ववहारं अत्थसत्थ- ईसत्थच्छरूप्पगयं, विविहाओ य जोग-जुंजणाओ, द्रव्यानुयोग-(२) वक्षस्कारों तथा अकर्मभूमियों में तथा सुविभक्त-भलीभांति विभागवाली भरत, ऐरवत आदि पन्द्रह कर्मभूमियों में निवास करने वाले, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिक, राजा, ईश्वर, युवराज ऐश्वर्यशाली लोग, तलवर-राजमान्य अधिकारी, सेनापति, इभ्य, श्रेष्ठी, राष्ट्रिक, पुरोहित कुमार, राजपुत्र, दण्डनायक-कोतवाल माडम्बिक, सार्थवाह, कौटुम्बिक और अमात्य-मंत्री ये और इनके अतिरिक्त अन्य मनुष्य परिग्रह का संचय करते हैं। वह परिग्रह अनन्त परिणामशून्य है, अशरण है, दुःखमय अन्त वाला है, अध्रुव है, अनित्य है एवं प्रतिक्षण विनाशशील होने से अशाश्वत है। पापकर्मों का मूल है, ज्ञानीजनों के लिए त्याज्य है, विनाश का मूल कारण है, अन्य प्राणियों के वध, बन्धन और क्लेश का कारण है और स्वयं के लिए अनन्त संक्लेश उत्पन्न करने वाला है। पूर्वोक्त देव आदि इस प्रकार के धन, कनक, रलों आदि का संचय करते हुए लोभ से ग्रस्त होते हैं और समस्त प्रकार के दुःखों के स्थान रूप इस संसार में परिभ्रमण करते हैं। ५८. परिग्रह के लिए प्रयत्न परिग्रह के लिए बहुत से लोग सैकड़ों शिल्प या हुनर तथा उच्च श्रेणी की निपुणता उत्पन्न करने वाली, गणित की प्रधानता वाली, लेखन से शकुनिरुत-पक्षियों की बोली पर्यन्त की बहत्तर कलाएं सीखते हैं। रति उत्पन्न करने वाली नारियां चौसठ महिलागुणों को सीखती हैं, कोई शिल्प द्वारा सेवा करते हैं। कोई असि-तलवार आदि शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करते हैं, कोई मसि कर्म-लिपि आदि लिखने की शिक्षा लेते हैं, कोई कृषि-खेती करते हैं, कोई वाणिज्य-व्यापार सीखते हैं, कोई व्यवहार अर्थात् विवाद के निपटारे की शिक्षा लेते हैं। कोई अर्थशास्त्र-राजनीति तथा धनुर्वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करते हैं। कोई छुरी-तलवार आदि शस्त्रों को पकड़ने-चलाने की, कोई अनेक प्रकार के यंत्र, मंत्र, मारण, संमोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि योगों की शिक्षा ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार के और दूसरे मंदबुद्धि वाले व्यक्ति सैकड़ों कारणों से परिग्रह के लिए प्रवृत्ति करते हुए जीवनपर्यन्त भटकते रहते हैं और परिग्रह का संचय करते हैं। परिग्रह के लिए लोग प्राणियों की हिंसा के कृत्य में प्रवृत्त होते हैं। झूठ बोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं, निकृष्ट वस्तु को मिलावट करके उत्कृष्ट दिखलाते हैं। दूसरे के द्रव्य में लालच करते हैं। स्वदार-गमन में शारीरिक एवं मानसिक खेद तथा परस्त्री की प्राप्ति न होने पर मानसिक पीड़ा का अनुभव करते हैं। कलह-विवाद-झगड़ा लड़ाई तथा वैर विरोध करते हैं अपमान तथा यातनाएं सहन करते हैं। इच्छाओं और महेच्छाओं रूपी पिपासा के निरन्तर प्यासे बने रहते हैं। तृष्णा गृद्धि और लोभ में ग्रस्त-आसक्त रहते हैं, वे त्राणहीन एवं इन्द्रियों तथा मन के निग्रह से रहित होकर क्रोध, मान, माया और लोभ का सेवन करते हैं। अन्नेसुय एवमाइएसु बहुसु कारणसएसु जावज्जीवं नडिज्जए संचिणंति मंदबुद्धी। परिग्गहस्सेव य अट्ठाए करंति पाणाण-वहकरणं। अलिय-नियडि-साइ-संपओगे। परदव्वाभिज्जा। स-परदार-अभिगमणासेवणाए आयसविसूरणं। कलहभंडण-वेराणि य अवमाणण-विमाणणाओ। इच्छा-महिच्छ-प्पिवास-सययतिसिया तण्हगेहिलोभघत्था अत्ताणा अणिग्गहिया करेंति कोह-माण-माया-लोभे।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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