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________________ ( १०३४ - १०३४ मणुयगणा वानरा य पक्खी य विरुझंति, मित्ताणि खिप्पं भवंति सत्तू। समये धम्मे गणे य भिंदंति पारदारी। धम्मगुणरया य बंभयारी खणेणं उल्लोट्ठए चरित्ताओ। जसमंतो सुव्वया य पावेंति अयसकित्तिं। रोगत्ता बाहिया पवदिति रोगवाही। दुवे य लोया दुआराहगा भवंति,इहलोए चेव परलोए परस्स दाराओजे अविरया। तहेव केइ परस्सदारं गवेसमाणा गहिया य, हया य, बद्धरुद्धा य एवं जाव गच्छंति विपुलमोहाभिभूयसन्ना। -पण्ह.आ.४,सु.९० ५१. अबंभयारण फलं मेहुणमूलं च सुव्वए तत्थ-तत्थ वत्तपुव्वा संगामा जमक्खयकरा “सीयाए दोवईए कए रुप्पिणीए पउमावईए ताराए कंचणाए रत्तसुभद्दाए अहिन्नियाए सुवनगुलियाए किन्नरीए, सुरूवविज्जुमईए य, रोहिए य, अन्नेसु य एवमाइएसु बहवे महिलाकएसु सुव्वंति अइक्कंता संगामा गामधम्म मूला। द्रव्यानुयोग-(२) मनुष्यगण, बन्दर और पक्षीगण भी मैथुन संज्ञा के कारण परस्पर विरोधी बन जाते हैं। मित्र शीघ्र ही शत्रु बन जाते हैं। परस्त्रीगामी पुरुष, समय सिद्धान्तों आचार, मर्यादाओं और सामाजिक व्यवस्था को भंग कर देते हैं। धर्म और संयमादि गुणों में निरत ब्रह्मचारी पुरुष भी मैथुनसंज्ञा के वशीभूत होकर क्षण भर में चारित्र-संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं। बड़े-बड़े यशस्वी और व्रतों का समीचीन रूप से पालन करने वाले भी अपयश और अपकीर्ति के भागी बन जाते हैं। ज्वर आदि रोंगों से ग्रस्त तथा कोढ आदि व्याधियों से पीड़ित प्राणी भी मैथुनसंज्ञा की तीव्रता के कारण अपने रोग व्याधि की भी वृद्धि कर लेते हैं। जो मनुष्य परस्त्री से विरत नहीं हैं, उनके लिए इहलोक और परलोक दोनों लोकों में भी आराधना करना कठिन है। इसी प्रकार परस्त्री की तलाश में रहने वाले कोई-कोई मनुष्य जब पकड़े जाते हैं तो पीटे जाते हैं, बन्धन बद्ध किये जाते हैं, कारागार में बंद कर दिए जाते हैं और जिनकी बुद्धि तीव्र मोह से ग्रस्त हो जाती है वे यावत् अधोगति को प्राप्त होते हैं। ५१. अब्रह्मचर्य का फल “सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, कांचना, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, स्वर्णगुटिका, किन्नरी, सुरूपविद्युत्मती और रोहिणी" के लिए पूर्वकाल में मनुष्यों का संहार करने वाले विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित जो संग्राम हुए सुने जाते हैं, उनका मूल कारण मैथुन ही था-मैथुन सम्बन्धी वासना के कारण ये सब महायुद्ध हुए हैं, इनके अतिरिक्त अन्य महिलाओं के निमित्त से जो भी संग्राम हुए हैं उनका भी मूल कारण अब्रह्म था। अब्रह्म का सेवन करने वाले इस लोक में तो नष्ट होते ही हैं वे परलोक में भी नष्ट होते हैं। मोहवशीभूत प्राणी त्रस और स्थावर, सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, साधारण और प्रत्येकशरीरी जीवों में, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, समूच्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिक जीवों में, नरक, तिर्यञ्च, देव और मनुष्यगति के जीवों में जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता वाले, महामोहरूपी अंधकार से व्याप्त एवं घोर परलोक में अनेक पल्योपमों एवं सागरोपमों जितने सुदीर्घ काल पर्यन्त नष्ट-विनष्ट होते रहते हैं। दारुण दुख भोगते हैं तथा अनादि अनंत दीर्घ मार्ग वाले चातुर्गतिक संसार रूपी अटवी में बार-बार परिभ्रमण करते रहते हैं। अब्रह्म रूप अधर्म का यह इहलोक और परलोक सम्बन्धी फल-विपाक है। यह अल्पसुख किन्तु बहुत दुःखों वाला है। यह फलविपाक अत्यन्त भयंकर है और अत्यधिक पाप-रज से संयक्त है। बड़ा ही दारुण और कठोर है। असाता का जनक है, हजारों वर्षों में अर्थात् बहुत दीर्घकाल के पश्चात् इससे छुटकारा मिलता है, भोगे बिना इससे छुटकारा नहीं मिलता। ऐसा ज्ञातकुल नन्दन वीरवर-महावीर नामक महात्मा जिनेन्द्र-तीर्थंकर ने अब्रह्म का फल विपाक प्रतिपादित किया है। अबभसेविणो इहलोए ताव नट्ठा परलोए वि य नट्ठा। महया मोहतिमिरंधयारे घोरे तस-थावर-सुहुम-बायरेसु पज्जत्तमपज्जत्त साहारणसरीर-पत्तेयसरीरेसुय। अंडज-पोतज-जराउय-रसज-संसेइम-संमुच्छिम-उब्भियउववाइएसुय, नरग-तिरिय-देव-माणुसेसु, जरामरण-रोग-सोग-बहुले, पलिओवम-सागरोवमाई अणाईयं . अणवदग्गं दीहमद्धं, चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटृति जीवा मोहवससंनिविट्ठा। एसो सो अबंभस्स फलविवागो इहलोइओ पारलोइओ य अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो-दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं न मुच्चइ। न य अवेदयित्ता अत्थिहु मोक्खोत्ति। एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणे उ वीरवरनामधेज्जो कहेसी य अबंभस्स फलविवागं। -पण्ह. आ.४, सु.९१-९२ (क)
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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