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________________ १००६ देह य सीसोवहारे "विविहोसहि-मज्ज-मंस भक्खऽन्न पाण-मल्लाणुलेवण-पईव -जलि - उज्जल-सुगंधि-धूवावकार पुष्फ फलसमिद्धे।" "पायच्छित्तं करेह, पाणाइवायकरणेणं पाणाइवायकरणेण बहुविहे विवरीउपाय- दुस्सु मिण-पाव सउण असोमग्गह-चरियअमंगल निमित्त पडिघायहेड।" "वित्तिच्छेयं करेह।" " मा देह किंचि दाणं।" "सुट्ठ-हओ सुट्टु हओ सुट्टु छिन्नो भिन्नत्ति उवदिसंत्ता एवं विहं करेंति अलियं ।” मणेण वायाए कम्मुणा य अकुसला अणज्जा अलियाणा अलिय- धम्मनिरया अलियासु-कहासु अभिरमंता तुट्ठा अलियं करेत्तु होइ य बहुप्पगारं । - पण्ह. आ. २, सु. ५६-५७ २८. मुसावायरस फलं तस्स य अलियरस फलविवागं अयाणमाणा वदेति, महब्भयं अविस्सामवेयणं दीहकालं बहुदुक्खसंकड नरय- तिरिय-जोणिं । तेण य अलिएण समणुबद्धा आइद्धा पुणब्भवंधकारे भमंति भीमे दुग्गतिवसहिमुवगया । ते व दीसति इह दुग्गया दुरंता परवसा अत्थ भोगपरिवज्जिया असुहिया फुडियच्छवि बीमच्छविवन्ना खर- फरूसविरतज्झामज्झसिरा, निच्छाया लल्लविफलवाया असक्कयमसक्कया अगंधा अचेयणा दुभगा अकंता काकस्सरा हीण-भिन्त्रघोसा, विहिंसा जडबहिरंधया मूया य मम्मणा अकंतविकयकरणा णीया णीयजण निसेविणो लोगगरहणिज्जा भिच्चा असरिसजणस्स पेस्सा दुम्मेहा लोक-वेद-अज्झम्यसमयसुवज्जिया नरा धम्मबुद्धिवियला। अलिएण य तेणं पडज्झमाणा असंतएण य अवमाणणपिट्ठिमसाहिक्लेव पिसुण-भेवण-गुरु-बंधव सयण-मित्त द्रव्यानुयोग - ( २ ) " अनेक प्रकार की औषधियों, मद्य, मांस, मिष्ठान, अन्न, पान, पुष्पमाला, चन्दन, लेपन, उबटन, दीपक, सुगन्धित धूप, पुष्पों तथा फलों से परिपूर्ण विधिपूर्वक बकरा आदि पशुओं के सिरों की बलि दो।" "विविध प्रकार की हिंसा करके अशुभ सूचक उत्पात, प्रकृतिविकार, दुःस्वप्न अपशकुन क्रूरग्रहों के प्रकोप, अमंगल सूचक अंगस्फुरण भुजा आदि अवयवों के फड़कने आदि के फल को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त करो। " 'अमुक की आजीविका नष्ट कर दो।" "किसी को कुछ भी दान मत दो।" "वह मारा गया, यह अच्छा हुआ, उसे काट डाला गया यह ठीक हुआ, उसके टुकड़े कर डाले गये यह अच्छा हुआ ।” इस प्रकार किसी के न पूछने पर भी आदेश उपदेश अथवा कथन करते हुए, मन-वचन-काया से मिथ्या आचरण करने वाले अनार्य अकुशल, मिथ्यामतों का अनुसरण करने वाले मिथ्याधर्म में निरत लोग मिथ्या कथाओं में रमण करते हुए मिथ्या भाषण करते हैं तथा नाना प्रकार से असत्य का सेवन करके सन्तोष का अनुभव करते हैं। २८. मृषावाद का फल पूर्वोक्त मिथ्याभाषण के फल-विपाक से अनजान वे मृषावादीजन अत्यन्त भयंकर दीर्घ काल तक निरन्तर वेदना और बहुत दुःखों से परिपूर्ण नरक और तिर्यञ्च योनि की वृद्धि करते हैं। नरक और तिर्यञ्चयोनियों में लम्बे समय तक घोर दुःखों का अनुभव करके शेष रहे कर्मों को भोगने के लिए ये मृषावाद में निरत-नर भयंकर पुनर्भव के अन्धकार में भटकते हैं। उस पुनर्भव में भी दुर्गति प्राप्त करते हैं, जिसका अन्त बड़ी कठिनाई से होता है। वे मृषावादी मनुष्य पुनर्भव (इस भव) में भी पराधीन होकर जीवनयापन करते हैं, उन्हें न तो भोगोपभोग का साधन अर्थ- धन प्राप्त होता है और न वे मनोज्ञ भोगोपभोग ही प्राप्त करते हैं । वे सदा दुःखी रहते हैं। उनकी चमड़ी बिवाई, दाद, खुजली आदि से फटी रहती है, वे भयानक दिखाई देते हैं और विवर्ण कुरूप होते हैं, कठोर स्पर्श वाले, रतिविहीन, बेचैन, मलीन एवं सारहीन शरीर वाले होते हैं। शोभाकान्ति से रहित होते हैं। वे अस्पष्ट और विफल वचन बोलने वाले होते हैं। वे संस्काररहित और सत्कार से रहित होते हैं, वे दुर्गन्ध से व्याप्त, विशिष्ट चेतना से विहीन, अभागे, अकान्त-अनिच्छनीय काक के समान अनिष्ट स्वर वाले, धीमी और फटी हुई आवाज वाले, विहिंस्य दूसरों के द्वारा विशेष रूप से सताये जाने वाले जड़ वधिर, अंधे, गूंगे और अस्पष्ट उच्चारण करने वाले तोतली बोली बोलने वाले, अमनोज्ञ तथा इन्द्रियों वाले वे नीच कुलोत्पन्न होते हैं। उन्हें नीच लोगों का सेवक बनना पड़ता है। वे लोक में निन्दा के पात्र होते हैं। वे भृत्य-चाकर होते हैं और असदृश असमान विरुद्ध आचार-विचार वाले लोगों के आज्ञापालक या द्वेषपात्र होते हैं, वे दुर्बुद्धि होते हैं, अतः लौकिक शास्त्र- महाभारत, रामायण आदि, वेद ऋग्वेद आदि, आध्यात्मिक शास्त्र कर्मग्रन्थ तथा समय आगमों या सिद्धान्तों के श्रवण एवं ज्ञान से रहित होते हैं, वे धर्मबुद्धि से रहित होते हैं। उस अशुभ या अनुपशान्त असत्य की अग्नि से जलते हुए वे मृषावादी, पीठ पीछे होने वाली निन्दा, आक्षेप - दोषारोपण, चुगली, परस्पर की फूट अथवा प्रेमसम्बन्धों का भंग आदि की स्थिति प्राप्त करते हैं। गुरुजनों, बन्धु बान्धवों, स्वजनों तथा मित्रजनों के तीक्ष्ण
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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