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________________ १००२ "नत्यि काइ किरिया वा अकिरिया वा, "एवं भणति नथिकवादिणो वामलोगवादी। -पण्ह. आ.२,सु.४६-४७ २३. असब्भाववाईणो मुसावाई इमं पि बिईयं कुदंसणं असब्भाववाइणो पण्णवेंति मूढा 'संभूओ अंडग्गा लोगो।' 'सयंभुणा सयं च निम्मिओ एवं एयं अलियं पयंपंति। "पयावइणा इस्सरेण य कयं"ति केई। "एवं विण्हुमयं कसिणमेव य जगं" ति केई। एवमेगे वदंति मोसं-“एगे आया" अकारको वेदको य सुकयस्स दुक्कयस्स य करणाणि कारणाणि सव्वहा सव्वहिं च निच्चो य निक्किओ निग्गुणो य अणुवलेवओ त्ति विय। एवमाहंसु असब्भावंजं पि इहं किंचि जीवलोके दीसइ सुकयं वा, दुकयं वा, एय जदिच्छाए वा, सहावेण वावि दइवतप्पभावओ वावि भवइ, नत्थेत्थ किंचि कयक तत्तं लक्खणविहाणं नियत्तीए कारियं। द्रव्यानुयोग-(२) ) न कोई शुभ क्रिया है और न कोई अशुभ क्रिया है। नास्तिक विचारधारा का अनुसरण करते हुए लोक-विपरीत मान्यता वाले कथन करते हैं। २३. असद्भाववादक मृषावादी (वामलोकवादी नास्तिकों के अतिरिक्त) कोई-कोई असद्भाववादीमिथ्यावादी मूढ जन दूसरा कुदर्शन-मिथ्यामत इस प्रकार कहते हैं'यह लोक अंडे से उद्भूत प्रकट हुआ है।' 'इस लोक का निर्माण स्वयंभू ने किया है।" इस प्रकार वे मिथ्या प्रलाप करते हैं। कोई-कोई कहते हैं कि-'यह जगत् प्रजापति या महेश्वर ने बनाया है।' किसी का कहना है कि-'यह समस्त जगत् विष्णुमय है।' किसी की यह मिथ्या मान्यता है कि-'आत्मा एक है एवं अकर्ता है किन्तु उपचार से पुण्य और पाप के फल को भोगता है। सर्व प्रकार से तथा देश-काल में इन्द्रियां ही कारण है। आत्मा (एकान्त) नित्य है, निष्क्रिय है, निर्गुण है और निर्लेप है। असद्भाववादी इस प्रकार भी प्ररूपणा करते हैं"इस जीवलोक में जो कुछ भी सुकृत या दुष्कृत दृष्टिगोचर होता है,वह सब यदृच्छा के स्वभाव से अथवा दैवप्रभाव-विधि के प्रभाव से ही होता है। इस लोक में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पुरुषार्थ से किया गया तथ्य (सत्य) हो। लक्षण (वस्तुस्वरूप) और विधान भेद को करने वाली नियति ही है।" । कोई-कोई ऋद्धि रस और साता के गारव (अहंकार) से लिप्त या इनमें अनुरक्त बने हुए और क्रिया करने में आलसी बहुत से वादी धर्म की मीमांसा (विचारणा) करते हुए ऐसी मिथ्या प्ररूपणा करते हैं। २४. राज्य विरुद्ध अभ्याख्यानवादी कोई-कोई (दूसरे लोग) राज्य विरुद्ध मिथ्या दोषारोपण करते हैं, चोरी न करने वाले को 'चोर' कहते हैं। जो उदासीन है-लड़ाई झगड़ा नहीं करता, उसे 'लड़ाईखोर या झगड़ालू' कहते हैं। जो सुशील है-शीलवान् है, उसे दुःशील-व्यभिचारी कहते हैं, यह परस्त्रीगामी है किसी पर ऐसा आरोप लगाते हैं कि यह तो गुरुपत्नी के साथ अनुचित सम्बन्ध रखता है ऐसा कहकर उसे अधिक बदनाम करते हैं, कोई-कोई किसी की कीर्ति अथवा आजीविका को नष्ट करने के लिए इस प्रकार मिथ्यादोषारोपण करते हैं कियह अपने मित्र की पलियों का सेवन करता है, यह अधार्मिक है, विश्वासघाती है, पाप कर्म करता है, नहीं करने योग्य कृत्य करता है,यह अगम्यगामी है, अर्थात् भगिनी पुत्रवधु आदि अगम्य स्त्रियों के साथ सहवास करता है, यह दुष्टात्मा है, बहुत से पाप कर्मों को करने वाला है, इस प्रकार ईर्ष्यालु लोग मिथ्या प्रलाप करते हैं। "एवं केइ जपंति इड्ढि-रस-साया-गारवपरा बहवे करणालसा परूवेंति धम्मवीमंसएणं मोसं।" -पण्ह.आ.२,सु.४८-५० २४. रायविरुद्ध अब्भक्खाण वाई अवरे अहम्मओ रायदुटुं अब्भक्खाणं भणंति। अलियं-“चोरो"त्ति अचोरयं करेंत। "डामरिउ"त्ति वि य एमेव उदासीणं। "दुस्सीलो"त्तिय परदारं गच्छइत्ति। "मइलि"त्ति सीलकलियं अयं पि गुरुतप्पओ त्ति। अण्णे एमेव भणंति "उवाहणंता, मित्त कलत्ताई सेवंति" "अयं पि लुत्तधम्मो" "इमो वि विस्संभवाइओ पावकम्मकारी, अकम्मकारी, अगम्मगामी" "अयं दुरप्पा बहुएसु य पावगेसु जुत्तो" त्ति । एवं जंपति मच्छरी।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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