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________________ ९९२ विविहभवण-तोरण-विडंग-देव-कुल-जालयद्धचंदनिज्जूहग-चंदसालिय-वेतिय-णिस्सेणि दोणिचंगेरी खील-मंडव सभा-पवा-वसह-गंध-मल्लाणुलेवणंबरजुय-नंगल-मइय-कुलिय-संदण-सोया-रह सगड-जाण-जोग्ग-अट्टालग-चरिअ-दार-गोपुर-फलिहजंतसूलिय-लउड-मुसंढि-सयग्धी-बहुपहरणावरणुवक्खराणकए अण्णेहिं य एवमाइएहिं बहुहिं कारणसएहिं हिंसंति ते तरूगणे भणिया अभणिया एवमादी। -पण्ह. आ.१,सु.१०-१७ १२. पाणवहगाणं मणोवित्ति सत्ते सत्तपरिवज्जिया उवहणंति दढमूढा दारुणमती कोहा माणा-माया-लोभा-हासा, रती, अरती, सोय, वेदत्थी, जीव जोयधम्मत्थ-कामहेउ सवसा अवसा अट्ठाए अणट्ठाए य तसपाणे थावरे य हिंसंति। द्रव्यानुयोग-(२) प्रकार के भवन, तोरण, नि!हक-द्वारशाखा-छज्जा, वेदी, निःसरणी-नसैनी, द्रोणी-छोटी नौका, चंगेरी बड़ी नौका या फूलों की डलिया (छावड़ी), खूटा-खूटी, स्तंभ-खम्भा, सभागार, प्याऊ, आवसाथ, आश्रम, मठ, गंध, माला, विलेपन, वस्त्र, युग-जूवा, लांगल-हल, मतिक-हल से जोती भूमि जिससे समतल की जाती है, कुलिक-विशेष प्रकार का हल, बखर, स्यन्दन-युद्ध-रथ, शिविका-पालकी, रथ, शकटछकड़ा-गाड़ीयान, युग्य, अट्टालिका, चरिका, द्वार, गोपुर-परिघा, यंत्र-आगल, अरहट आदि शूली, लकुटलकड़ी-मुसंढी, शतघ्नी-सैकड़ों का हनन हो सके ऐसी तोप या महाशिला तथा अनेकानेक प्रकार के शस्त्र, ढक्कन एवं अन्य उपकरण बनाने के लिए और इसी प्रकार के ऊपर कहे गए तथा नहीं कहे गए ऐसे बहुत से सैकड़ों कारणों से अज्ञानी जन वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं। १२. प्राणवधकों की मनोवृत्ति दृढमूढ-हिताहित के विवेक से सर्वथा शून्य क्रूर अज्ञानी, दारुण मति वाले मंदबुद्धि पुरुष क्रोध से प्रेरित होकर, क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत होकर तथा हंसी विनोद के लिए, रति, अरति एवं शोक के अधीन होकर, वेदानुष्ठान के अर्थी होकर, वंशानुगत धर्म, अर्थ एवं काम के लिए कभी स्ववश-अपनी इच्छा से और कभी परवश-पराधीन होकर, कभी प्रयोजन से और कभी बिना प्रयोजन ही अशक्त शक्तिहीन त्रस तथा स्थावर जीवों का घात करते हैं। वे बुद्धिहीन क्रूर प्राणी कई स्ववश स्वतंत्र होकर घात करते हैं, कई विवश होकर घात करते हैं, कई स्ववश विवश दोनों प्रकार से घात करते हैं। कई सप्रयोजन घात करते हैं, कई निष्प्रयोजन घात करते हैं, कई सप्रयोजन और निष्प्रयोजन दोनों प्रकार से घात करते हैं। कई पापी जीव हास्य विनोदवश, कई वैर के कारण और कई भोगासक्ति से प्रेरित होकर और कई हास्य वैर और भोगासक्ति रूप तीनों कारणों से हिंसा करते हैं। कई क्रूद्ध होकर हनन करते हैं, कई लुब्ध होकर हनन करते हैं, कई मुग्ध होकर हनन करते हैं, कई क्रूद्ध-लुब्ध और मुग्ध तीनों के लिए हनन करते हैं। कई अर्थ के लिए घात करते हैं, कई धर्म के लिए घात करते हैं, कई काम-भोग के लिए घात करते हैं तथा कई अर्थ-धर्म-कामभोग तीनों के लिए घात करते हैं। १३. हिंसकजनों का परिचय प्र. वे हिंसकजन कौन हैं ? उ. शौकरिक-शूकरों का शिकार करने वाले, मत्स्यबन्धक मछलियों को जाल में फंसाकर मारने वाले, शाकुनिक-जाल में फंसाकर पक्षियों का घात करने वाले, व्याध-मृगों को जाल में फंसाकर मारने वाले, क्रूरकर्मा, वागुरिक-जाल में मृग आदि को फंसाने के लिए घूमने वाले, मंदबुद्धी सवसा हणंति, अवसा हणंति, सवसा-अवसा हणंति। अट्ठा-हणंति, अणट्ठा हणंति, अट्ठा-अणट्ठा दुहओ हणंति। हस्सा हणंति, वेरा हणंति, रती हणंति, हस्सा-वेरा-रतीहणंति। कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति, कुद्धा-लुद्धा-मुद्धा हणंति। अत्था हणंति, धम्मा हणंति, कामा हणंति, अत्था धम्मा कामा हणंति। -पण्ह.आ.१,सु.१८ १३. हिंसगजणाणं परिययो प. कयरे ते? उ. जे ते सोयरिया, मच्छबंधा, साउणिया, वाहा, कूरकम्मा, वाउरिया,
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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