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________________ आश्रव अध्ययन ९८७ अदत्तादान आश्रव से गाढ़ कर्मों का बन्धन तो होता ही है, किन्तु इस लोक में भी उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है। राज्य की दण्ड व्यवस्था के अनुसार कारागार में कैद कर ताड़न, अंगच्छेदन एवं तीव्र प्रहारों की वेदना दी जाती है। प्राचीन युग में राज्य व्यवस्था के अनुसार चोरों को किस प्रकार दण्डित किया जाता था इसका प्रस्तुत अध्ययन में अच्छा निरूपण हुआ है। अब्रह्मचर्य का सेवन प्रायः दस भवनपति, दस व्यन्तर जाति के देव, आठ मुख्य व्यन्तर देव, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव, मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव करते हैं। अब्रह्म का सेवन मोह के उदय से होता है। यह स्त्री-पुरुष के मिथुन से होने के कारण मैथुन कहा जाता है। अब्रह्म सेवन का सम्बन्ध बाह्य ऐश्वर्य से एवं शारीरिक गठन से भी जुड़ा हुआ है। इसलिए इसके साथ ही चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव एवं मांडलिक राजाओं के विपुल ऐश्वर्य का वर्णन कर अन्त में कहा गया है कि अनेक प्रकार की उत्तम भार्याओं के साथ कामभोग भोगते हुए भी ये चक्रवर्ती आदि कभी तृप्त नहीं हुए। तृप्त हुए बिना ही वे मृत्यु को प्राप्त हो गए। इसलिए अब्रह्म सेवन का अन्त करना अत्यधिक कठिन है। ____ अकर्मभूमि के स्त्री पुरुष सर्वांग सुन्दर अंगों से सम्पन्न होते हैं। पुरुष वज्रऋषभनाराच एवं समचतुरन संस्थान युक्त होते हैं। उनके प्रत्येक अंग कांति से दैदीप्यमान रहते हैं तथापि वे तीन पल्योपम की आयु तक कामभोगों को भोग कर भी अतृप्त ही रह जाते हैं। युगलिक पुरुषों एवं स्त्रियों के पैर, नख, नाभि, वक्षस्थल, हस्त, स्कन्ध आदि प्रत्येक अंग का इस अध्ययन में सौन्दर्य वर्णित है। स्त्रियां सर्वांग सुन्दर होने के साथ छत्र, ध्वजा आदि ३२ लक्षणों से भी युक्त होती है। वे मानवी अप्सराएँ कही जा सकती हैं। किन्तु परस्पर मैथुन सेवन इन्हें भी तृप्ति नहीं देता और मृत्यु हो जाती है। कर्मभूमि के मनुष्य मैथुन की वासना के कारण अनेक प्रकार का अनर्थ कर देते हैं। परस्त्री-सेवन के प्रति भी प्रवृत्त हो जाते हैं। किन्तु अब्रह्म का सेवन करने वाले इहलोक में नष्ट होते हैं तथा परलोक में भी नष्ट होते हैं। अब्रह्म के कारण सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी आदि के लिए संग्राम भी हुए। परिग्रह को एक ऐसे वृक्ष की उपमा दी गई है जिसकी जड़ अनन्त तृष्णा है, जिसका तना लोभ, कलह, क्रोधादि कषाय हैं, जिसकी शाखाएँ चिन्ता, मानसिक सन्ताप आदि हैं, जिसकी शाखा के अग्रभाग ऋद्धि, रस और साता रूप गारव है, दूसरों को ठगने रूप निकृति जिसकी कोपलें हैं तथा कामभोग ही जिसके पुष्प और फल हैं। यह परिग्रह अधिकतर लोगों को हृदय से प्यारा लगता है किन्तु निर्लोभता रूप मोक्षोपाय की यह अर्गला है। चारों प्रकार के देवों में परिग्रह की प्रचुरता होने पर भी वे कभी इससे तृप्त नहीं होते। इन देवों के ऐश्वर्य का इस अध्ययन में निरूपण हुआ है। इसी प्रकार अकर्मभूमि के मनुष्य एवं कर्मभूमियों में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिक राजा, युवराज, ऐश्वर्यशाली लोग, सेनापति, श्रेष्ठी, राजमान्य अधिकारी, सार्थवाह आदि अनेक मनुष्य परिग्रहधारी होते हैं। परिग्रह के संचय हेतु लोग अनेक प्रकार की विद्याएँ सीखते हैं, हिंसा के कृत्य में प्रवृत्त होते हैं, झूठ बोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं, मिलावट करते हैं, वैर-विरोध करते हैं फिर भी इच्छाओं की तृप्ति नहीं होती। आश्रव के इस प्रकरण में हिंसा, मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्म एवं परिग्रह रूप पापों का वर्णन करके मुमुक्षुओं को इनसे बचने की शिक्षा दी गई है क्योंकि प्राणी इन आश्रवों के कारण कर्मबन्धन कर संसार में भ्रमण करता रहता है। जो इन्हें त्याग कर अहिंसा आदि संवरों का आचरण करता है वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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