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________________ ( ९७० ।। एवं जाव थणियकुमारे। प. (ग) पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ताइएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। एवं असुरकुमारेसु विजाव थणियकुमारेसुवि। द्रव्यानुयोग-(२)) इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. (ग) भंते पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से निकल कर क्या अनन्तर (सीधा) नैरयिकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार असुरकुमारों से स्तनितकुमारों पर्यन्त उत्पत्ति का निषेध जानना चाहिए। प्र. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से निकल कर क्या अनन्तर (सीधा) पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है। प. पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइएहितो अणंतर उव्वट्टित्ता पुढविक्काइएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा। प. जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए? उ. गोयमा !णो इणठे समठे। एवं आउक्काइयादीसु णिरंतर भाणियव्वं जाव चउरिदिएसु। पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिय-मणूसेसुजहाणेरइए। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु पडिसेहो। एवं जहा पुढविक्काइओ भणिओ तहेव आउक्काइओ वि वणप्फइकाइओ विभाणियव्यो। प. (घ) तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहिती अणंतर उव्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। एवं असुरकुमारेसु विजाव थणियकुमारेसुवि। प्र. भंते ! जो उत्पन्न होता है तो क्या वह केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ प्राप्त करता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार अप्कायिक से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जीवों की निरन्तर उत्पत्ति के लिए कहना चाहिए। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में उत्पत्ति नैरयिकों के समान जानना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में पृथ्वीकायिक की उत्पत्ति का निषेध समझना चाहिए। इसी प्रकार जैसे पृथ्वीकायिक की उत्पत्ति के विषय में कहा है उसी प्रकार अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक के विषय में भी कहना चाहिए। प्र. (घ) भंते ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से निकल कर क्या अनन्तर (सीधा) नारकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार तेजस्कायिक जीव की असुरकुमारों से स्तनितकुमारों पर्यन्त उत्पत्ति का निषेध समझना चाहिए। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, बनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों में कोई उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है। प्र. भंते ! जो उत्पन्न होता है तो क्या वह केवलि प्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ प्राप्त करता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है। पुढविक्काइय-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदियचउरिदिएसु अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा। प. जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए? - उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प. तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा। प. जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धर्म लभेज्जा सक्णयाए? उ. गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइएणो लभेज्जा। प. जे णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए से णं केवलं बोहिं बुज्झेज्जा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प्र. भंते ! जो (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक में) उत्पन्न होता है तो क्या वह केवलि-प्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ प्राप्त करता है? उ. गौतम ! कोई लाभ प्राप्त करता है और कोई नहीं करता है। प्र. भंते ! जो केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ प्राप्त करता है तो क्या वह केवलबोधि को प्राप्त करता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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