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________________ ५. आयुष्य कर्म जिस प्रकार बेड़ी स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद रखते हैं, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि आत्मा को किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है। आयुष्य कर्म चार प्रकार का है - ( 9 ) नरक आयु, (२) तिर्यंच आयु (वानस्पतिक एवं पशु जीवन), (३) मनुष्य आयु और (४) देव आयु आयुष्य कर्म के बन्ध के कारण - सभी प्रकार के आयुष्य कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है। फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। स्थानांग सूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य कर्म के बन्ध के चार-चार कारण माने गये हैं। (अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण - ( १ ) महारम्भ ( भयानक हिंसक कर्म ), (२) महापरिग्रह ( अत्यधिक संचय वृत्ति), (३) मनुष्य, पशु आदि का वध करना, (४) माँसाहार और शराब आदि नशीले पदार्थ का सेवन (ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (१) कपट करना, (२) रहस्यपूर्ण कपट करना, (३) असत्य भाषण, (४) कम-ज्यादा तोल-माप करना । कर्मग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का प्रकट न करना भी तिर्यंच आयु के बन्ध का कारण माना गया है। तत्त्वार्थ सूत्र में माया ( कपट) को ही पशुयोनि का कारण बताया है। (स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (१) सरलता, (२) विनयशीलता, (३) करुणा और (४) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना। तत्त्वार्थ सूत्र में-(१) अल्प आरम्भ, (२) अल्प परिग्रह, (३) स्वभाव की सरलता और (४) स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु के बन्ध का कारण कहा गया है। (द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण - ( १ ) सराग (सकाम) संयम का पालन, (२) संयम का आंशिक पालन, (३) सकाम तपस्या (बाल-तप), (४) स्वाभाविक रूप में कर्मों के निर्जरित होने से । तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही कारण माने गये हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार अविरत सम्यकदृष्टि मनुष्य या तिराँच देशाविरत श्रावक, सरागी साधु, बाल-तपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थितिवश भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम-निर्जरा करने वाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं। , आकस्मिक मरण-प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु-कर्म को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयु-कर्म के परमाणु भोग के पश्चात् पृथक् होते रहते हैं। जिस समय वर्तमान आयु-कर्म के पूर्वबद्ध समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है। वर्तमान शरीर छोड़ने के पूर्व ही नवीन शरीर के आयु कर्म का बन्ध हो जाता है। लेकिन यदि आयुष्य का भोग इस प्रकार नियत है तो आकस्मिक मरण की व्याख्या क्या ? इसके प्रत्युत्तर में जैन-विचारकों ने आयु-कर्म का भोग दो प्रकार का माना - (१) क्रमिक, (२) आकस्मिक । क्रमिक भोग में स्वाभाविक रूप से आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक भोग में किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही भोग ली जाती है। इसे ही आकस्मिक मरण या अकाल मृत्यु कहते हैं। स्थानांग सूत्र में इसके सात कारण बताये गये हैं- ( 9 ) हर्ष-शोक का अतिरेक, (२) विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, (३) आहार की अत्यधिकता अथवा सर्वथा अभाव, (४) व्याधिजनित तीव्र वेदना, (५) आघात, (६) सर्पदंशादि और (७) श्वासनिरोध । ६. नाम-कर्म जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नाम कर्म विभिन्न कर्म परमाणुओं से जगत् के प्राणियों के शरीर की रचना करता है। मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कह सकते हैं। जैन दर्शन में व्यक्तित्व के निर्धारक तत्त्वों को नाम कर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या १०३ मानी गई है लेकिन विस्तारभय से उनका वर्णन सम्भव नहीं है। उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप है - ( १ ) शुभ नाम-कर्म (अच्छा व्यक्तित्व) और (२) अशुभ नाम-कर्म ( बुरा व्यक्तित्व)। प्राणी जगत् में, जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका आधार नाम-कर्म है। शुभ नाम-कर्म के बन्ध के कारण जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने गये हैं - ( १ ) शरीर की सरलता, (२) वाणी की सरलता, (३) मन या विचारों की सरलता, (४) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामंजस्यपूर्ण जीवन । शुभ नाम कर्म का विपाक उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का विपाक १४ प्रकार का माना गया है - ( १ ) अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी (इष्ट-शब्द), (२) सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट-रूप), (३) शरीर से निःसृत होने वाले मलों में भी सुगंधि (इष्ट-गंध), (४) जैवीय रसों की समुचितता ( इष्ट-रस), (५) त्वचा का सुकोमल होना (इष्ट-स्पर्श), (६) अचपल योग्य गति (इष्ट-गति), (७) अंगों का समुचित स्थान पर होना (इष्ट-स्थिति), (८) लावण्य, (९) यश: कीर्ति का प्रसार (इष्ट-यश: कीर्ति), (१०) योग्य शारीरिक शक्ति (इष्ट-उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम), (११) लोगों को रुचिकर लगे ऐसा स्वर, (१२) कान्त स्वर, (१३) प्रिय स्वर और (१४) मनोज्ञ स्वर। अशुभ नाम-कर्म के कारण - निम्न चार प्रकार के अशुभाचरण से व्यक्ति (प्राणी) को अशुभ व्यक्तित्व की उपलब्धि होती है - ( १ ) शरीर की वक्रता, (२) वचन की वक्रता, (३) मन की वक्रता और (४) अहंकार एवं मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्यपूर्ण जीवन । ( ६८ )
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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