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________________ xx ७०२ उ. गोयमा !जहा सिद्धा। -विया. स. ८, उ. २, सु. ५३-५५ xx xx ५. पज्जत्तापज्जत्त दारंप. पज्जत्ता णं भंते !जीवा किं नाणी, अन्नाणी? उ. गोयमा !जहा सकाइया। प. दं.१. पज्जत्ता णं भंते ! नेरइया किं नाणी, अन्नाणी? उ. गोयमा ! तिण्णि नाणा, तिण्णि अन्नाणा नियमा। प. दं.२-११.जहा नेरइया एवं जाव थणियकुमारा। द.१२. पुढविकाइया जहा एगिदिया। द्रव्यानुयोग-(१) उ. गौतम ! उनका कथन सिद्धों के समान है। xx ५. पर्याप्त-अपर्याप्त द्वार प्र. भन्ते ! पर्याप्तक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? उ. गौतम ! वे सकायिक जीवों के समान है। प्र. दं.१. भन्ते ! पर्याप्त नैरयिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? उ. गौतम ! इनमें नियमतः तीन ज्ञान या तीन अज्ञान होते हैं। दं.२-११. पर्याप्त (असुरकुमारों से स्तनितकुमारों पर्यन्त) पर्याप्त नैरयिक जीवों के समान है। दं. १२. पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव एकेन्द्रिय जीवों के समान है। दं.१३-१९. इसी प्रकार पर्याप्त चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. दं.२०. भन्ते ! पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं? उ. गौतम ! उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं। दं.२१. पर्याप्त मनुष्य सकायिक जीवों के समान है। दं.२२-२४. पर्याप्त वाणव्यन्तर,ज्योतिष्क और वैमानिक नैरयिक जीवों के समान है। प्र. भन्ते ! अपर्याप्तक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? उ. गौतम ! उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं। दं. १३-१९. एवं जाव चउरिंदिया। प. दं. २०. पज्जत्ता णं भंते ! पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया किं नाणी, अन्नाणी? उ. गोयमा ! तिण्णि नाणा, तिण्णि अन्नाणा भयणाए। दं.२१.मणुस्सा जहा सकाइया। द. २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। प. अपज्जत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी, अन्नाणी ? उ. गोयमा ! तिण्णि नाणा, तिण्णि अन्नाणा भयणाए ए। xx xx प. दं.१.अपज्जत्ता णं भंते ! नेरइया किं नाणी, अन्नाणी? उ. गोयमा ! तिण्णि नाणा नियमा, तिण्णि अन्नाणा भयणा। दं.२-११.एवं जाव थणियकुमारा। दं. १२-१६. पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया जहा एगिदिया। प. दं. १७. बेइंदिया णं भंते ! अपज्जत्तगा किं नाणी, अन्नाणी? उ. गोयमा ! दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा। दं.१८-२०. एवं जाव पंचेंदिय-तिरिक्खजोणियाणं। प्र. दं. १. भन्ते ! अपर्याप्त नैरयिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं? उ. गौतम ! उनमें तीन ज्ञान नियमतः होते हैं और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। दं.२-११. नैरयिक जीवों की तरह अपर्याप्त स्तनितकुमार देवों तक कथन करना चाहिए। दं. १२-१६. पृथ्वीकायिक से वनस्पतिकायिक जीवों पर्यंत का कथन एकेन्द्रिय जीवों के समान हैं। प्र. दं. १७. भन्ते ! अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं? उ. गौतम ! इनमें दो ज्ञान या दो अज्ञान नियमतः होते हैं। दं. १८-२०. इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. दं. २१. भन्ते ! अपर्याप्त मनुष्य ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? प. द. २१. अपज्जत्ता णं भंते ! मणुस्सा किं नाणी, अन्नाणी? उ. गोयमा ! तिण्णि नाणाई भयणाए, दो अन्नाणाई नियमा। उ. गौतम ! उनमें तीन ज्ञान भजना से होते हैं और दो अज्ञान नियमतः होते हैं। दं. २२. अपर्याप्त वाणव्यन्तर जीवों का कथन नैरयिक जीवों के समान है। दं.२२. वाणमंतराजहा नेरइया।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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