SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 790
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान अध्ययन ६८३ ३. अदिन्नमादित्ता भवइ, ४. सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे आसादेत्ता भवइ, ५. पूयासक्कारमणुवूहेत्ता भवइ, ६. इमं सावज्ज त्ति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवइ, ७. णो जहावादी तहाकारी यावि भवइ। सत्तहिं ठाणेहिं केवली जाणेज्जा,तं जहा१. णो पाणे अइवाइत्ता भवइ जाव२-७ जहावाई तहाकारी यावि भवइ। -ठाण. अ.७, सु.५५० १०६. बेमाणियदेवेहिं केवलिस्स मणोवययोग विन्नाणं प. केवली णं भंते ! पणीयं मणं वा, वई वा धारेज्जा? ३. जो अदत्त का ग्रहण करता है, ४. जो शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का आस्वादक होता है, ५. जो पूजा और सत्कार का अनुमोदन करता है, ६. जो यह "सावध सपाप है" ऐसा कहकर भी उसका आसेवन करता है, ७. जो जैसा कहता है वैसा नहीं करता है। सात हेतुओं से केवली जाना जाता है, यथा१. जो प्राणों का अतिपात नहीं करता यावत् २-७ जो जैसा कहता है वैसा करता है। १०६. वैमानिक देवों द्वारा केवली के मन वचन योगों का ज्ञान प्र. भन्ते ! क्या केवली प्रशस्त मन और प्रशस्त वचन धारण करता है? उ. हॉ, गौतम ! धारण करता है। प्र. भन्ते ! केवली जिस प्रकार से प्रशस्त मन और प्रशस्त वचन को धारण करता है क्या उसे वैमानिक देव जानते-देखते हैं ? - उ. गौतम ! कितने ही जानते-देखते हैं और कितने ही नहीं जानते, नहीं देखते हैं। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "कितने ही देव जानते-देखते हैं, कितने ही देव नहीं जानते, नहीं देखते हैं? उ. गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. मायीमिथ्यादृष्टि रूप से उत्पन्न, २. अमायीसम्यग्दृष्टि रूप से उत्पन्न। इनमें जो मायीमिथ्यादृष्टि हैं वे नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं। किन्तु जो अमायीसम्यग्दृष्टि हैं वे कई जानते-देखते हैं और कई नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं। उ. हंता, गोयमा ! धारेज्जा। प. जे णं भंते ! केवली पणीयं मणं वा, वई वा धारेज्जा तं ___णं वेमाणिया देवा जाणंति पासंति? उ. गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति, अत्थेगइया न जाणंति न पासंति। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ "अत्यंगइया जाणंति पासंति, अत्थेगइया न जाणंति न पासंति?" उ. गोयमा ! वेमाणिया देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा १. मायिमिच्छादिट्ठिउववनगा य, २. अमायिसम्मदिट्ठिउववन्नगा य। तत्थ णं जे ते माइमिच्छादिट्ठीउववन्नगा ते ण जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदिट्ठीउववन्नगा ते णं अत्थेगइया जाणंति-पासंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति। प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ "अत्थेगइया जाणंति-पासंति, अत्यंगइया ण जाणंति, ण पासंति?" उ. गोयमा ! अमाइसम्मदिट्ठी दुविहा पण्णत्ता,तं जहा १. अणंतरोववण्णगा य, २. परंपरोववण्णगाय। तत्थ णं जे ते अणंतरोववण्णगा ते ण जाणंति, ण पासंति। तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते णं अत्थेगइया जाणंति-पासंति, अत्थेगइया ण जाणंति,ण पासंति। प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ- . "अत्थेगइया जाणंति-पासंति, अत्थेगइया ण जाणंति, ण पासंति?" उ. गोयमा ! परंपरोववण्णगा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा प्र. भन्ते ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि "कई जानते-देखते हैं और कई नहीं जानते, नहीं देखते हैं ?" उ. गौतम ! अमायीसम्यग्दृष्टि दो प्रकार के कहे गए है, यथा १. अनन्तरोपपन्नक, २. परम्परोपपन्नक। इनमें से जो अनन्तरोपपन्नक हैं वे नहीं जानते, नहीं देखते हैं, इनमें से जो परंपरोपपन्नक हैं वे कई जानते-देखते हैं और कई नहीं जानते, नहीं देखते हैं। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "कई जानते-देखते हैं और कई नहीं जानते, नहीं देखते हैं?" उ. गौतम ! परम्परोपपन्नक (सम्यग्दृष्टि) भी दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy