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________________ कर्मफल संविभाग का प्रश्न क्या एक व्यक्ति अपने शुभाशुभ कर्मों का फल दूसरे को दे सकता है या नहीं अथवा दूसरे के कर्मों का फल उसे प्राप्त होता है या नहीं, यह दार्शनिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। भारतीय चिन्तन में हिन्दू परम्परा मानती है कि व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों का फल उसके पूर्वजों व सन्तानों को मिल सकता है। इस प्रकार वह इस सिद्धान्त को मानती है कि कर्मफल का संविभाग सम्भव है।' इसके विपरीत बौद्ध परम्परा कहती है कि व्यक्ति के पुण्यकर्म का ही संविभाग हो सकता है, पापकर्म का नहीं। क्योंकि पापकर्म में उसकी अनुमति नहीं होती है। पुनः उनके अनुसार पाप सीमित होता है उतः इसका संविभाग नहीं हो सकता, किन्तु पुण्य के अपरिमित होने से उसका ही संविभाग सम्भव है। किन्तु इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण भिन्न है, उनके अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का फल-विपाक न तो दूसरों को दे सकता है और न दूसरे के शुभाशुभ कर्मों का फल उसे मिल सकता है। जैन दार्शनिक स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि कर्म और उसका विपाक व्यक्ति का अपना स्वकृत होता है। जैन कर्म-सिद्धान्त में कर्मफल संविभाग का अर्थ समझने के लिए हमें निमित्त कारण और उपादान कारण के भेद को समझना होगा। दूसरा व्यक्ति हमारे सुख-दुःख में और हम दूसरे के सुख-दुःख में निमित्त हो सकते हैं, किन्तु भोक्ता और कर्ता तो वही होता है। अतः उपादान की दृष्टि से तो कर्म और उसका विपाक अर्थात् सुख-दुःख का अनुभव स्वकृत है। निमित्त की दृष्टि से उन्हें परकृत कहा जा सकता है, किन्तु निमित्त अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं है; क्योंकि कर्म संकल्प तो हमारा अपना ही होता है एवं कर्म के विपाक की अनुभूति भी हमारी ही होती है। अतः उपादान कारण की दृष्टि से तो कर्म एवं उसके विपाक में संविभाग सम्भव नहीं है। न तो दूसरा व्यक्ति हमें सुखी या दुःखी कर सकता है और न हम दूसरे को सुखी या दुःखी कर सकते हैं। हम अधिक से अधिक दूसरे के सुख-दुःख के निमित्त हो सकते हैं। लेकिन ऐसी निमित्तता तो भौतिक पदार्थों के सन्दर्भ में भी होती है। सत्य तो यह है कि कर्म और उसका विपाक दोनों ही व्यक्ति के अपने होते हैं। कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या जिन कर्मों का बन्ध किया गया है, उनका विपाक व्यक्ति को भोगना ही होता है। जैन कर्म-सिद्धान्त में कर्मों को दो भागों में बाँटा गया है-१. नियत विपाकी और २. अनियत विपाकी। कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिनका जिस फल-विपाक को लेकर बन्ध किया गया है, उसी रूप में उनके फल के विपाक का वेदन करना होता है, किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं, जिनके विपाक का वेदन उसी रूप में नहीं करना होता, जिस रूप में उनका बन्ध होता है। जैन कर्म-सिद्धान्त मानता है कि जो कर्म तीव्र कषायों से उद्भूत होते हैं उनका बन्ध भी प्रगाढ़ होता है और विपाक भी नियत होता है। पारम्परिक शब्दावली में उन्हें निकाचित कहते हैं। इसके विपरीत जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे कषायभाव अल्प होता है, उनका बन्धन शिथिल होता है और उनके विपाक का संवेदन आवश्यक नहीं होता है। वे तप एवं पश्चात्ताप के द्वारा अपना फल-विपाक दिये बिना ही समाप्त हो जाते हैं। वैयक्तिक दृष्टि से सभी आत्माओं में कर्म-विपाक परिवर्तन करने की क्षमता नहीं होती है। केवल वे ही व्यक्ति जो आध्यात्मिक ऊँचाई पर स्थित हैं, कर्म-विपाक में परिवर्तन कर सकते हैं। पुनः वे भी उन्हीं कर्मों के विपाक को अन्यथा कर सकते हैं, जिनका बन्ध अनियत विपाकी कर्म के रूप में हुआ है। नियत विपाकी कर्मों का भोग तो अनिवार्य है। इस प्रकार जैन कर्म-सिद्धान्त अपने को नियतिवाद और यदृच्छावाद दोनों की एकांगिकता से बचाता है। वस्तुतः कर्म-सिद्धान्त में कर्म-विपाक की नियतता और अनियतता की विरोधी धारणाओं के समन्वय के अभाव में नैतिक जीवन की यथार्थ व्याख्या सम्भव नहीं होती है। यदि एकान्त रूप से कर्म-विपाक की नियतता को स्वीकार किया जाता है तो नैतिक आचरण का चाहे निषेधात्मक रूप में कुछ सामाजिक मूल्य बना रहे, लेकिन उसका विधायक मूल्य तो पूर्णतया समाप्त हो जाता है, क्योंकि नियत भविष्य के बदलने का सामर्थ्य नैतिक जीवन में नहीं रह पाता है। दूसरे, यदि कर्मों को पूर्णतः अनियत विपाकी माना जाये, तो नैतिक व्यवस्था का ही कोई अर्थ नहीं रह जाता है। विपाक की पूर्ण नियतता मानने पर निर्धारणवाद और विपाक की पूर्ण अनियतता मानने पर अनिर्धारणवाद की सम्भावना होगी, लेकिन दोनों ही धारणाएँ एकान्तिक रूप में नैतिक जीवन की समुचित व्याख्या कर पाने में असमर्थ हैं। अतः कर्म-विपाक की आंशिक नियतता ही एक तर्क-संगत दृष्टिकोण है, जो नैतिक दर्शन की सम्यक् व्याख्या प्रस्तुत करता है। कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ जैन-दर्शन में कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं पर चिन्तन हुआ है और बताया गया है कि कर्म के बन्ध और विपाक (उदय) के बीच कौन-कौन-सी अवस्थायें घटित हो सकती हैं, पुनः वे किस सीमा तक आत्म-स्वातन्त्र्य को कुण्ठित करती हैं अथवा किस सीमा तक आत्म-स्वातन्त्र्य को अभिव्यक्त करती हैं, इसकी चर्चा भी की गयी है। ये अवस्थाएँ निम्न हैं १. बन्ध-कषाय एवं योग के फलस्वरूप कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों से जो सम्बन्ध स्थापित होता है, उसे बन्ध कहते हैं। १. सागरमल जैन,कर्म-सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. १७-१८ २. (अ) महाभारत : शान्तिपर्व (गीता प्रेस, गोरखपुर), पृ. १२९ (ब) तिलक, लोकमान्य बालगंगाधर, गीतारहस्य, पृ. २६८ ३. आचार्य नरेन्द्रदेव, बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २७७ ४. (अ) देखें-उत्तराध्ययन सूत्रः सम्पादक मधुकर मुनि, ४/४, २३/११ (ब) भगवती सूत्र, १/२/६४ (६२)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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