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________________ ज्ञान अध्ययन ४७. सूरियपण्णत्ति सुत्तस्स उक्खेबो फुड- वियड-पागडत्यं वुच्छं पुण्य-सुय-सार- निस्संदं । सुहुमं गणिणोवइट्ठ जोइसगणराय-पण्णत्ति ॥३ ॥ नामेण " इंदभूइ "त्ति, गोयमो वंदिऊण तिविहेणं । पुच्छइ जिणवरवसहं, जोइसरायस्स पण्णत्तिं ॥४ ॥ तेण कालेन तेण समएणं "मिहिला" णामं णयरी होत्या, वण्णओ। तीसे ण मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए एत्थ णं " माणिभद्दे" णामं चेइए होत्था, वण्णओ । तीसे णं मिहिलाए "जियसत्तू राया परिवस, वण्णओ। तस्स णं जियसत्तुस्स रण्णो " धारिणी" णामं देवी होत्था वण्णओ। तेणें कालेणं तेणं समएणं तमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे बण्णओ। परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। राया जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेबासी "इंदभूई" णामं अणगारे जाब पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी- सूरिय. पा. १, सु. १-२ ४८. वीसं पाहुडाणं विसयपरूवणं१. कइ मंडलाइ वच्चइ, २. तिरिच्छा किं च गच्छइ । ३. ओभासह केवहयं, ४. सेयाइ किं ते संठिइ ॥ १ ॥ ५. कहिं पडिहवा लेसा, ६. कहि ते ओयसठिई। ७. के सूरियं वरयति, ८. कह ते उदयसंठिई ॥२॥ ९. कई कट्ठा पोरिसिच्छाया, १०. जोगे किं ते व आहिए। ११. किं ते संवच्छरेणाई, १२. कइ संवच्छराइ य ॥ ३ ॥ १३. कहं चंदमसो वुड्ढी, १४. कया ते दोसिणा बहू । १५. के सिग्घगई वुत्ते, १६. कहं दोसिण लक्खणं ॥४ ॥ १७. चयणोववाय, ६४५ ४७. सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र का उपोद्घात स्पष्ट और अस्पष्ट सूक्ष्म अर्थ- गणित को प्रगट करने के लिए पूर्व श्रुत के सार का निष्यन्द-प्रवाह रूप गणि द्वारा उपदिष्ट “ज्योतिषगणराज़ (चन्द्र सूर्य) प्रज्ञप्ति " को मैं कहूँगा । इन्द्रभूति नामक गौतम गोत्रीय ने जिनवर तीर्थंकर भगवान् महावीरको त्रियोग ( मन-वचन-काया) के योग से वंदना करके “ज्योतिषगणराज (चन्द्र सूर्य) प्रज्ञप्ति " के सम्बन्ध में पूछाउस काल और उस समय में "मिथिला" नामक नगरी थी, करना चाहिए। वर्णन उस मिथिला नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व "ईशानकोण" दिग्विभाग में "माणिभद्र” नामक चैत्य था, वर्णन करना चाहिए। उस मिथिला में जितशत्रु राजा रहता था, वर्णन करना चाहिए। उस जितशत्रु राजा की धारिणी" नाम की देवी (रानी) थी. वर्णन करना चाहिए। ·44. उस काल और उस समय उस माणिभद्र चैत्य में भगवान् महावीर स्वामी समवसृत हुए “पधारे वर्णन करना चाहिए। परिषद " नगरी से निकली "भ. महावीर ने " धर्म का स्वरूप कहा। "धर्म श्रवण कर" परिषद् “नगरी में " लौट गई। राजा जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। उस काल और उस समय में श्रमण भ. महावीर के बड़े शिष्य “इन्द्रभूति” नाम के अणगार ने यावत् हाथ जोड़कर पर्युपासना करते हुए इस प्रकार कहा ४८. बीस प्राभृतों का विषय प्ररूपण १. वर्ष भर में सूर्य कितने मण्डलों में "कितनी बार" गति करता है ? २. तिर्यक् लोक में सूर्य कितने क्षेत्र को प्रकाशित करता है ? ३. चन्द्र सूर्य कितने क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं? ४. चन्द्र सूर्य के प्रकाश की मर्यादा कितनी है? ५. सूर्य की तेजोलेश्या कहां अवरुद्ध होती है ? ६. सूर्य के ओज "प्रकाश" की स्थिति कैसी है? ७. सूर्य का प्रकाश किन पुद्गलों पर पड़ता है? ८. चन्द्र-सूर्य के 'उदय' "अस्त" की स्थिति कैसी है ? ९. पौरुषी छाया का प्रमाण कितना है ? १०. चन्द्र के साथ योग करने वाले कौन-कौन से नक्षत्र हैं ? ११. संवत्सरों का आदि काल कौनसा है ? १२. संवत्सर कितने है? १३. चन्द्र के प्रकाश की हानि - वृद्धि किस प्रकार होती है ? १४. चन्द्र की चान्दनी कब घटती है और कब बढ़ती है ? १५. चन्द्रादि ग्रहों में किनकी शीघ्र गति है और किनकी मन्द गति है ? १६. चन्द्र की चान्दनी का स्वरूप क्या है ? १७. चन्द्रादि का च्यवन " देहत्याग" और उपपात ( देह प्रादुर्भाव) कैसे है?
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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