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________________ ६४० ३३. गणिपिडगसरूयं एल्य णं दुयालसंगे गणिपिडगे अनंता भावा, अनंता अभावा अनंता हेऊ, अनंता अहेऊ, अनंता कारणा, अनंता अकारणा, अणता जीवा, अनंता अजीवा, अणता भवसिद्धिया, अनंता अभवसिद्धिया, अनंता सिद्धा, अनंता असिद्धा, आघविज्जति जाव उवदंसिज्जति ।' सम. सु. १४८ (४) ३४. गणिपिङगविराहणा आराहणा य फलंइच्चेइयं दुवासंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियटिंसु, इच्चेइयं दुकालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णे काले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टति, इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिस्संति । २ इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा आणाए आराहेला चाउरंतसंसारकंतारं विश्वईसु । इच्चेइयं दुवासंगं गणिपिडगं पहुण्णकाले परित्ता जीवा आणाए आराहेत्ता बाउरंतसंसारकंतारं विवयति। इच्छेयं दुवालसँग गणिपिडगं अणागए काले अनंता जीवा आणाए आराहेला चाउरंतसंसारकंतारं विवइस्सति । -सम. सु. १४८ (१-२) ३५. पुव्यगय सुयस्स विच्छेय विचारणा प. जंबुद्दीये णं भंते! दीवे भारडे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवइयं कालं पुव्वगए 'अणुसज्जिस्सइ ? उ. गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए मर्म एगं वाससहस्सं पुव्वगए अणुसज्जिस्स । प. जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुधियाण एवं वाससहस्से पुव्यगए जिस ताणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए अवसेसाणं तिल्थगराण केवइयं काल पुव्वगए अणुसज्जित्था ? उ. गोयमा ! अत्येगइयाणं संखेज्ज कालं, अत्येगइयाणं असंखेज् कालं । - विया. स. २०, उ. ८, सु. १०-११ २. नंदी. सु. ११२ १. नंदी सु. १११ ३३. गणिपिटक का स्वरूप इस द्वादशांग गणि-पिटक मेंअनन्त भावों, अनन्त अभावों, अनन्त हेतुओं, अनन्त अहेतुओं, अनन्त कारणों, अनन्त अकारणों, द्रव्यानुयोग - (१) अनन्त जीवों, अनन्त अजीवों, अनन्त भव्यसिद्धिकों, अनन्त अभव्यसिद्धिकों, अनन्त सिद्धों, अनन्त असिद्धों का, कथन किया गया है यावत् निरूपण किया गया है। ३४. गणिपिटकविराधना और आराधना का फल इस द्वादशांग गणि-पिटक में प्ररूपित आज्ञाओं की विराधना करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गतिरूप संसार अटवी में परिभ्रमण किया है। इस द्वादशांग गणि-पिटक में प्ररूपित आज्ञाओं की विराधना करके वर्तमान काल में अनेक जीव चतुर्गतिरूप संसार अटवी में परिभ्रमण कर रहे हैं। इस द्वादशांग गणि-पिटक में प्ररूपित आज्ञाओं की विराधना करके भविष्यकाल में अनन्त जीव चतुर्गतिरूप संसार अटवी में परिभ्रमण करेंगे। इस द्वादशांग गणि-पिटक में प्ररूपित आज्ञाओं की आराधना करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गतिरूप संसार अटवी को पार किया है। वर्तमान काल में भी इस द्वादशांग गणि-पिटक में प्ररूपित आज्ञाओं की आराधना करके अनेक जीव चतुर्गतिरूप संसार- कान्तार को पार कर रहे हैं। भविष्यकाल में भी इस द्वादशांग गणि-पिटक में प्ररूपित आज्ञा की आराधना करके अनन्त जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार करेंगे। ३५. पूर्वगत श्रुत के विच्छेद की विचारणा प्र. भन्ते ! जम्बूद्वीप के भरतवर्ष में इस अवसर्पिणीकाल में आप देवानुप्रिय का पूर्वगतश्रुत कितने काल तक रहेगा ? उ. गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भरतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल में मेरा पूर्वगतश्रुत एक हजार वर्ष तक रहेगा। प्र. भन्ते ! जिस प्रकार इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, इस अवसर्पिणीकाल में, आप देवानुप्रिय का पूर्वगतधुत एक हजार वर्ष तक रहेगा तो भन्ते ! उसी प्रकार जम्बूद्वीप के भरतवर्ष में इस अवसर्पिणीकाल में अन्य तीर्थंकरों के शासन में पूर्वगतश्रुत कितने काल तक रहा था ? उ. गौतम ! कितने ही तीर्थंकरों का पूर्वगतश्रुत संख्यात काल तक रहा और कितने ही तीर्थंकरों का असंख्यात काल तक रहा। ३. नंदी. सु. ११३
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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