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________________ ( ६०६ ६०६ समवाए णं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियपरिवुड्ढीए, ठाणगसयस्स, दुवालसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिज्जइ, बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समायारे आहिज्जइ। तत्थ णं णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वण्णिया वित्थरेणं, अवरे वि अ बहुविहा विसेसा नरग-तिरियमणुयसुरगणाणं आहारुस्सास-लेसा-आवाससंखआययप्पमाण-उववाय-चवण-ओगाहणोहि-वेयणविहाणउवओग-जोग इंदिय-कसाय, विविहा य जीवजोणी, विक्खंभुस्सेह-परिरयप्पमाणं, विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं, कुलगर-तित्थगर-गणहराणं समत्तभरहाहिवाण चक्कीण चेव, चक्कहर-हलहराण य, वासाण य निगमा य समाए। द्रव्यानुयोग-(१) समवायांग में एक समवाय से एक-एक समवाय बढ़ाते हुए सौ समवायों का तथा द्वादशांग गणिपिटक के परिमाण का कथन किया गया है। बारह अंगरूप में विस्तार को प्राप्त श्रुत ज्ञान का जगत् के जीवों के हित के लिए भगवान् द्वारा संक्षेप में समावेश किया गया है। इस समवायांग में नाना प्रकार के भेद-प्रभेद वाले जीव और अजीव पदार्थों का विस्तार से वर्णन किया गया है। तथा अन्य अनेक प्रकार के विशेष तत्वों का, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गणों के आहार, उच्छ्वास, लेश्या, आवास संख्या का आयाम-विष्कम्भ का प्रमाण, उपपात, च्यवन, अवगाहना, अवधिज्ञान, वेदना, विधान, उपयोग, योग, इन्द्रिय, कषाय, नाना प्रकार की जीव-योनियां, पर्वत-कूट आदि के विष्कम्भ, उत्सेध परिधि के प्रमाण का मन्दर आदि महीधरों के विधि-विशेषों का कुलकरों, तीर्थंकरों, गणधरों तथा समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी चक्रवर्तियों का, चक्रधर-वासुदेवों और हलधरों का, क्षेत्रों का, निर्गमों का तथा इसी प्रकार के अन्य पदार्थों का भी इस समवायांग सूत्र में विस्तार से कथन किया गया है। समवायांग की वाचनाएं परिमित हैं यावत् संग्रहणियां संख्यात हैं। अंग की अपेक्षा यह चौथा अंग है, इसमें एक अध्ययन है, एक श्रुतस्कन्ध है, एक उद्देशन-काल है, एक समुद्देशन-काल है, पद-गणना की अपेक्षा इसके एक लाख चवालीस हजार पद हैं। संख्यात अक्षर हैं यावत् उदाहरण देकर समझाए जाते हैं। इसका अध्ययन करने वाला तदात्मरूप, ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है, इस प्रकार इसमें चरण करण की प्ररूपणा की है यावत् उपदर्शन किया है। यह समवायांग का वर्णन है। (क) समवायांग का उत्क्षेप हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन भगवान् ने ऐसा कहाआदि (श्रुत धर्म-प्रणायक) तीर्थंकर, स्वयंसंबुद्ध, पुरुषोत्तम, एए अण्णे य एवमाइया अत्था एत्थ वित्थरेणं समासिज्जति। समवायस्स णं परित्ता वायणा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ, से णं अंगठ्ठयाए चउत्थे अंगे, एगे अज्झयणे, एगे सुयक्खंधे, एगे उद्देसणकाले,एगे समुद्देसणकाले, एगे चउयाले पदसयसहस्से पदग्गेणं पण्णत्ते। संखेज्जा अक्खरा जाव उवदंसिज्जति। से एवं आया, एवं नाया, एवं विण्णाया, एवं चरणकरण परूवणा आघविज्जइ जाव उवदंसिज्जइ। से तं समवाए। -सम. सु. १३९ (क) समवायांगस्स उक्खेवो सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायंइह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसुत्तमेणं १. प. से किं तं समवाए? उ. समवाए णं जीवा समासिज्जति, अजीवा समासिज्जति, जीवाजीवा समासिज्जंति, लोए समासिज्जइ, अलोए समासिज्जइ, लोयालोए समासिज्जइ, ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिज्जइ, ससमयपरसमए समासिज्जइ। समवाए णं एगाइयाणं एगुत्तरियाणं ठाणगसयविवड्ढियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जइ। दुवालसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिज्जइ। समवाए णं परित्ता वायणा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगठ्ठयाए चउत्थे अंगे, एगे सुयक्वंधे,एगे अज्झयणे, एगे उद्देसणकाले, एगे समुद्देसणकाले, एगे चोयाले पदसयसहस्से पदग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा जाव उवदंसिज्जति। से एवं आया, एवं नाया, एवं विण्णाया एवं चरण करण परूवणा आघविज्जइ जाव उवदंसिज्जइ। -नंदी.सु.८६
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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