SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काम-वासना की तीव्रता की दृष्टि से जैन विचारकों के अनुसार पुरुष की काम-वासना शीघ्र ही प्रदीप्त हो जाती है और शीघ्र ही शान्त हो जाती है। स्त्री की काम-वासना देरी से प्रदीप्त होती है लेकिन एक बार प्रदीप्त हो जाने पर काफी समय तक शान्त नहीं होती। नपुंसक की काम-वासना शीघ्र प्रदीप्त हो जाती है लेकिन शान्त देरी से होती है। इस प्रकार भय, शोक, घृणा, हास्य, रति, अरति और काम-विकार ये उप-आवेग हैं। ये भी व्यक्ति के जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं। क्रोध आदि की शक्ति तीव्र होती है, इसलिए वे आवेग हैं। ये व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्रभावित करने के अतिरिक्त उसके आन्तरिक गुणों-सम्यक् दृष्टिकोण, आत्म-नियन्त्रण आदि को भी प्रभावित करते हैं। भय आदि उप-आवेग व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को उतना प्रत्यक्षतः प्रभावित नहीं करते, जितना शारीरिक और मानसिक स्थिति को करते हैं। उनकी शक्ति अपेक्षाकृत क्षीण होती है, इसलिए वे उप-आवेग कहलाते हैं। जैन सूत्रों में इन चार प्रमुख कषायों को “चंडाल चौकड़ी" कहा गया है। इनमें अनन्तानुबन्धी आदि जो विभाग हैं उनको सदैव ध्यान में रखना चाहिए और हमेशा यह प्रयत्न करना चाहिए कि कषायों में तीव्रता न आये, क्योंकि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के होने पर साधक अनन्तकाल तक संसार-परिभ्रमण करता है और सम्यग्दृष्टि नहीं बन पाता है। यह जन्म-मरण के रोग की असाध्यावस्था है। अप्रत्याख्यानी कषाय के होने पर साधक, श्रावक या गृहस्थ साधक के पद से गिर जाता है। यह साधक के आंशिक चरित्र का नाश कर देती है। यह चिकारों की दुःसाध्यावस्था है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानी कषाय की अवस्था में साधुत्व प्राप्त नहीं होता। इसे विकारों की प्रयत्ल-साध्यावस्था कहा जा सकता है। साधक को अपने जीवन में उपर्युक्त तीनों प्रकार के कषायों को स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे उसकी साधना या चारित्र धर्म का नाश हो जाता है। इतना ही नहीं, साधक को अपने अन्दर संज्वलन कषाय को भी स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि जब तक चित्त में सूक्ष्मतम क्रोध, मान, माया और लोभ रहते हैं, साधक अपने लक्ष्य-निर्वाण की प्राप्ति नहीं कर सकता। संक्षेप में अनन्तानुबन्धी चौकड़ी या कषायों की तीव्रतम अवस्था यथार्थ दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक है। अप्रत्याख्यानी चौकड़ी या कषायों की तीततर अवस्था आत्म-नियन्त्रण में बाधक है। प्रत्याख्यानी चौकड़ी या कषायों की तीव्र अवस्था श्रमण जीवन की घातक है। इसी प्रकार संज्वलन चौकड़ी या अल्प-कषाय पूर्ण निष्काम या वीतराग जीवन की उपलब्धि में बाधक है। इसलिए साधक को सूक्ष्मतम कषायों को भी दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि इनके होने पर उसकी साधना में पूर्णता नहीं आ सकती। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि आत्म-हित चाहने वाला साधक पाप की वृद्धि करने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार दोषों को पूर्णतया छोड़ दें। लेश्या-सिद्धान्त जैन विचारकों के अनुसार जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है या बन्धन में आती है, वह लेश्या है। जैनागमों में लेश्या दो प्रकार की मानी गयी है-(१) द्रव्य-लेश्या और (२) भाव-लेश्या। १. द्रव्य-लेश्या-द्रव्य-लेश्या सूक्ष्म भौतिकी तत्त्वों से निर्मित वह आंगिक संरचना है, जो हमारे मनोभावों एवं तज्जनित कर्मों का सापेक्ष रूप में कारण अथवा कार्य बनती है जिस प्रकार पित्तद्रव्य की विशेषता से स्वभाव में क्रोधीपन आता है और क्रोध के कारण पित्त का निर्माण बहुल रूप में होता है, उसी प्रकार इन सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से मनोभाव बनते हैं और मनोभाव के होने पर इन सूक्ष्म संरचनाओं का निर्माण होता है। इनके स्वरूप के सम्बन्ध में पं. सुखलाल जी एवं राजेन्द्रसूरि जी ने निम्न तीन मतों को उद्धृत किया है १. लेश्या-द्रव्य कर्म-वर्गणा से बने हुए हैं। यह मत उत्तराध्ययन की टीका में है। २. लेश्या-द्रव्य बध्यमान कर्म-प्रवाह रूप है। यह मत भी उत्तराध्ययन की टीका में वादिवैताल शान्तिसूरि का है। ३. लेश्या-योग परिणाम है अर्थात् शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं का परिणाम है। यह मत आचार्य हरिभद्र का है। २. भाव-लेश्या-भाव-लेश्या आत्मा का अध्यवसाय या अन्तःकरण की वृत्ति है। पं. सुखलाल जी के शब्दों में भाव-लेश्या आत्मा का मनोभाव विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से लेश्या (मनोभाव) वस्तुतः अनेक प्रकार की है। तथापि संक्षेप में छह भेद करके (जैन) शास्त्र में उसका स्वरूप वर्णन किया गया है। ___उत्तराध्ययन सूत्र में लेश्याओं के स्वरूप का निर्वचन विविध पक्षों के आधार पर विस्तृत रूप से हुआ है, लेकिन हम अपने विवेचन को लेश्याओं के भावात्मक पक्ष तक ही सीमित रखना उचित समझेंगे। मनोदशाओं में संक्लेश की न्यूनाधिकता अथवा मनोभावों की अशुभत्व से शुभत्व की ओर बढ़ने की स्थितियों के आधार पर ही उनके विभाग किये गये हैं। अप्रशस्त और प्रशस्त इन द्विविध मनोभावों से उनकी तारतम्यता के आधार पर छह भेद वर्णित हैं- . ___अप्रशस्त मनोभाव प्रशस्त मनोभाव १. कृष्ण-लेश्या-तीव्रतम अप्रशस्त मनोभाव ४. तेजो-लेश्या-प्रशस्त मनोभाव २. नील-लेश्या-तीव्र अप्रशस्त मनोभाव ५. पद्म-लेश्या तीव्र प्रशस्त मनोभाव ३. कापोत-लेश्या-अप्रशस्त मनोभाव ६. शुक्ल-लेश्या-तीव्रतम प्रशस्त मनोभाव १. जैन साइकॉलॉजी, पृ. १३१-१३४ २. तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो, पृ. ४७ ३. दशवैकालिक सूत्र, ८/३७ ४. अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ६, पृ. ६७५ ५. .(अ) दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ. २९७ (ब) अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ६, पृ. ६७५ ६. उत्तराध्ययन सूत्र, ३४/३ (५५)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy