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________________ शब्द है-आभयवा अविरल द्धि और विज्ञान ज्ञान अध्ययन ५८३ इन्द्रियादि की सहायता से होने वाले ज्ञान के अवग्रहादि चार सोपान हैं। कोई भी अवायज्ञान बिना अवग्रह एवं ईहा के अवायत्व तक नहीं पहुँचता और बिना अवायज्ञान के धारणा नहीं होती। ज्ञान की यह प्रक्रिया इतनी शीघ्र होती है कि इसके क्रमशः होने का साधारणतया पता नहीं चलता है। तत्त्वार्थसूत्र (१-१६) में अवग्रहादि के बहु, बहुविध, क्षिप्र, निश्रित, असन्दिग्ध, ध्रुव एवं इनके विपरीत अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, अनिश्रित, सन्दिग्ध और अध्रुव ये १२ भेद निरूपित हैं। स्थानांग सूत्र में इनके छह-छह भेदों का उल्लेख है, यथा-१. शीघ्र, २. बहु, ३. बहुविध, ४. ध्रुव, ५. अनिश्रित (हेतु आदि का सहारा लिए बिना जानना) और ६. असंदिग्ध। ___ आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायवाची शब्द के रूप में मतिज्ञान शब्द प्रसिद्ध है किन्तु इस ज्ञान की अनेक विशेषताओं को व्यक्त करने वाले ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति एवं प्रज्ञा को भी आभिनिबोधिक ज्ञान कहा गया है। अवग्रह अथवा अर्थावग्रह को व्यक्त करने वाले अन्य शब्द हैं-अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा। ईहा के समानार्थक शब्द हैं-आभोगनेता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता और विमर्श। अवाय के समानार्थक शब्द आवर्तनता प्रत्यावर्तनता, अपाय, बुद्धि और विज्ञान हैं। धारणा को साधारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा और कोष्ठ भी कहा है। अवग्रह का काल नन्दीसूत्र के अनुसार एक समय है। ईहा एवं अवाय का काल अन्तर्मुहूर्त है तथा धारणा का काल संख्यात या असंख्यात है। अवग्रह आदि के भेदों के आधार पर आभिनिबोधिक ज्ञान के ३३६ भेद किए जाते हैं। उनमें व्यंजनावग्रह के ४ (चक्षु एवं मन को छोड़कर) तथा अर्थावग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा के ६-६ भेदों को बहु, बहुविध आदि १२ भेदों से गुणा करने पर ३३६ (४+६+६+६+६ = २८ x १२ = ३३६) भेद ही जाते हैं। इनमें बुद्धि के चार भेद मिलाने पर ३४० भेद बनते हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान पौद्गलिक इन्द्रियादि की सहायता से होने पर भी वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से रहित होता है। ज्ञान तो जीव का स्वभाव है। वह ज्ञान के आवरण का क्षयोपशम या क्षय होने पर प्रकट होता है। इसलिए वह वर्णादि से रहित होता है। श्रुतज्ञान क्या है? श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर आत्मा में संकेतग्राही शब्द आदि के निमित्त से जो ज्ञान प्रकट होता है वह श्रुतज्ञान है। यह श्रुतज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्तर होता है। शब्द या संकेत तो उसमें निमित्त मात्र होता है, ज्ञान आत्मा में ही प्रकट होता है। इस दृष्टि से परमार्थतः तो जीव ही श्रुत है किन्तु श्रुतज्ञान का कारणभूत या कार्यभूत शब्द उपचार से श्रुतज्ञान कहलाता है, यथा-"श्रुतज्ञानस्य कारणभूते कार्यभूते वा शब्दे श्रुतोपचारः क्रियते। ततो न परमार्थतः शब्दः श्रुतम् किन्तूपचारतः इत्यदोषः। परमार्थतस्तर्हि किं श्रुतुम्? परमार्थतस्तु जीवः श्रुतम्, ज्ञान-ज्ञानिनोरनन्य भूतत्वात्।" (विशेषावश्यक भाष्य, वृत्ति गाथा ९९)। श्रुतज्ञान भी दो प्रकार का होता है-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत। श्रोत्र रहित एकेन्द्रियादि जीवों में भावश्रुत ज्ञान होता है, द्रव्यश्रुत नहीं। आगम में श्रुतज्ञान के १४ भेद प्रसिद्ध हैं, वे हैं-१. अक्षरश्रुत, २. अनक्षरश्रुत, ३. संज्ञिश्रुत, ४. असंज्ञिश्रुत, ५. सम्यक्श्रुत, ६. मिथ्याश्रुत, ७. सादिश्रुत, ८. अनादिश्रुत, ९. सपर्यवसितश्रुत, १0. अपर्यवसितश्रुत, ११. गमिकश्रुत, १२. अगमिकश्रुत, १३. अंगप्रविष्टश्रुत और १४. अनंगप्रविष्टश्रुत। ____ अक्षर अर्थात् वर्णों के निमित्त से जो श्रुतज्ञान प्रकट होता है वह अक्षरश्रुतज्ञान कहलाता है। यह संज्ञा, व्यंजन एवं लब्ध्यक्षर के भेद से तीन प्रकार का होता है। ऊँचा सांस लेने, श्वास छोड़ने, थूकने, खाँसने, छींकने आदि अवर्णात्मक संकेतों से जो श्रुतज्ञान होता है उसे अनक्षरश्रुतज्ञान कहते हैं। यह अनेक प्रकार का होता है। संज्ञा अर्थात् मनोज्ञान से युक्त संज्ञी का श्रुतज्ञान संज्ञिश्रुत कहलाता है। यह तीन प्रकार का होता है- १. कालिकी उपदेश, २. हेतु-उपदेश और ३. दृष्टिवाद उपदेश । कालिकी संज्ञा में अतीत अर्थ का स्मरण एवं भविष्यत् वस्तु का चिन्तन होता है। इसे दीर्घकालिकी संज्ञा भी कहा जाता है। छाया, धूप, आहार आदि इष्ट अनिष्ट वस्तुओं में से जो अपनी देह-रक्षा के लिए इष्ट में प्रवृत्त होते हैं ऐसी हेतुवादोपदेश संज्ञा से द्वीन्द्रियादि जीव युक्त होते हैं, अतः उनमें वह संज्ञा पायी जाती है एवं उनका ज्ञान हेतु-उपदेश संज्ञिश्रुत कहलाता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि को भी संज्ञी कहा जाता है। उसकी यह संज्ञा दृष्टिवादोपदेश से है। उसका श्रुतज्ञान दृष्टिवादोपदेश संज्ञीश्रुतज्ञान है। असंज्ञिश्रुतज्ञान संज्ञीश्रुत से भिन्न होता है। यह असंज्ञियों में होता है। सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अर्हत् द्वारा प्रणीत द्वादशांग रूप गणिपिटक सम्यक्श्रुत कहलाता है। अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टियों द्वारा स्वच्छंद और विपरीत बुद्धि से कल्पित ग्रन्थ मिथ्याश्रुत हैं, यथा-महाभारत, रामायण आदि। यहाँ पर एक स्पष्टीकरण आवश्यक है, वह यह कि मिथ्यादृष्टि द्वारा गृहीत ग्रन्थ मिथ्याश्रुत हैं तथा सम्यग्दृष्टि द्वारा गृहीत ग्रन्थ सम्यक्श्रुत हैं। यह ज्ञाता की दृष्टि पर भी निर्भर करता है। द्वादशांग रूप गणिपिटक पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा व्युच्छित्ति के कारण सादि-सान्त है तथा अव्युच्छित्ति (द्रव्यार्थिकनय से) के कारण आदि अन्त रहित है। सादि-सान्त होने पर उसे सादि-सपर्यवसित तथा आदि-अन्त रहित होने पर अनादि अपर्यवसित कहा जाता है। द्वादशांगों में से दृष्टिवाद गमिकश्रुत है तथा दृष्टिवाद के अतिरिक्त अंग-आगम अगमिकश्रुत हैं। आचारांग आदि १२ अंग आगमों को अंगप्रविष्ट कहते हैं। अंगबाह्य आगमों को अनंगप्रविष्ट कहा जाता है। ये दो प्रकार के होते हैं-आवश्यक सूत्र और आवश्यक से व्यतिरिक्त आगम। आवश्यक श्रुत ६ प्रकार का माना गया है-१. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान । आवश्यक व्यतिरिक्तश्रुत दो प्रकार का प्रतिपादित है-१. कालिक और २. उत्कालिक। कालिक एवं उत्कालिकश्रुत अनेक प्रकार के हैं। इस अध्ययन में अंग-आगमों एवं अंगबाह्य-आगमों का समवायांग, नन्दी आदि सूत्रों के आधार पर विस्तृत परिचय दिया गया है। समस्त आगमों में किस प्रकार का वर्णन है, उसे इस अध्ययन को पढ़कर संक्षेप में जाना जा सकता है। कहीं-कहीं सम्बद्ध आगमों से ही कुछ पाठ दिए गए हैं। एक प्रश्न अवश्य उठता है, वह यह कि आगमों की जो विषय-वस्तु समवायांग एवं नन्दीसूत्र में दी गई है, उसमें एवं सम्प्रति प्राप्त आगमों की विषय-वस्तु में कुत्रचित् भेद क्यों हैं ? काल-कवलन एवं स्मृति भ्रंश भी इस भेद का कारण हो सकता है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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