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________________ ४३८ प. असुरकुमार-भवणवासि-देवपंचेंदिय-वेउब्वियसरीरे णं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते, तंजहा१. भवधारणिज्जे य,२. उत्तरवेउव्विएय। १. तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते। २. तत्थ णंजे से उत्तरवेउव्विए से णं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। एवं जाव थणियकुमार-देवपंचेंदिय-वेउब्वियसरीरे। एवं वाणमंतराण वि। णवरं-ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति। एवं जोइसियाण वि ओहियाण। द्रव्यानुयोग-(१) प्र. भत ! असुरकुमार-भवनवासी देव,पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! असुरकुमार देवों का शरीर दो प्रकार का कहा गया है, यथा१. भवधारणीया, २. उत्तरवैक्रिया। १. उनमें से जो भवधारणीय शरीर है, वह समचतुरन संस्थान वाला होता है, २. उनमें से जो उत्तर वैक्रिया शरीर है, वह अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है। इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीरों का संस्थान समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के वैक्रिय शरीर का संस्थान समझ लेना चाहिये। . विशेष-औधिक वाणव्यन्तर देवों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछना चाहिए। इसी प्रकार औधिक ज्योतिष्क देवों के संस्थान के सम्बन्ध में समझना चाहिए। इसी प्रकार सौधर्म से अच्युत कल्प पर्यन्त के वैक्रिय शरीर के संस्थानों का कथन करना चाहिये। प्र. भंते ! ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! ग्रैवेयक देवों के एकमात्र भवधारणीय शरीर ही होता है और वह समचतुरन संस्थान वाला होता है। इसी प्रकार पांच अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देवों के शरीर भी समचतुरन संस्थान वाले होते हैं। ४४. आहारक शरीर का संस्थानप्र. भंते ! आहारक शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! वह समचतुरस्रसंस्थान वाला कहा गया है। एवं सोहम्म जाव अच्चुयदेवसरीरे।' प. गेवेज्जगकप्पाइया वेमाणिय-देवपंचेंदिय-वेउव्वियसरीरे __णंभंते ! किं संठिए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरीरए, से ___णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते। एवं अणुत्तरोववाइयाण विार -पण्ण.प.२१, सु. १५२१-१५२५ ४४. आहारगसरीरस्स संठाणं प. आहारगसरीरेणं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते।३ -पण्म.प.२१,सु.१५३४ ४५. तेयगसरीरस्स संठाणं प. तेयगसरीरेणं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते? उ. गोयमा !णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। प. एगिदियतेयगसरीरेणं भंते ! किं संठिए पण्णते? . उ. गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। प. पुढविकाइय-एगिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते? उ. गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते। ४५. तैजस्शरीर का संस्थान प्र. भंते ! तैजस् शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! वह नाना संस्थान वाला कहा गया है। प्र. भंते ! एकेन्द्रिय तैजस शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! वह नाना प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है। प्र. भंते ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तैजस् शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! वह मसूरचन्द्र (मसूर की दाल) के आकार का कहा गया है। इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों पर्यन्त तैजस् शरीर संस्थानों का कथन औदारिक शरीर संस्थानों के अनुसार कहना चाहिए। प्र. भंते ! नैरयिकों का तैजस् शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? एवं ओरालियसंठाणाणुसारेणं भाणियव्वं जाव चउरिंदियाण त्ति। प. णेरइयाणं भंते ! तेयगसरीरे किं संठिए पण्णत्ते? १. जीवा. पडि. ३, सु.२०१ (ई) २. (क) सम. सु. १५२ (ख) सम.सु. १५५ ३. सम.सु.१५२
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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