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________________ ( ३८४ - द्रव्यानुयोग-(१) ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइसरीरं, णाणाविहाणं तस थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूविकडं संतं सव्वप्पणाए आहार आहारैति। अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा नाणावण्णा जाव नाणासंठाणसठिया नाणाविहसरीरपोग्गलविउव्विता, ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं। ३. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु रुक्खत्ताए विउटैति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइसरीर, नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं पुब्बाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारुविकडं संतं सव्वप्पणाए आहारं आहारेंति अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सरीरा णाणावण्णा जाव नाणाविह सरीरपोग्गल विउव्विया ते जीवा कम्मोववण्णगा भवतीतिमक्खाय।। वे जीव पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं, वे नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त करते हैं। वे पूर्व में विध्वस्त (प्रासुक) किये हुए, पूर्व में आहार किये हुए, त्वचा द्वारा आहार किये हुए विपरिणत तथा आत्मसात् किये हुए उस शरीर का सर्वात्मना आहार कर लेते हैं। उन वृक्षयोनिक वृक्षों के नाना वर्ण यावत् नाना प्रकार के संस्थानों युक्त दूसरे शरीर भी होते हैं जो अनेक प्रकार के शारीरिक पुद्गलों से विकुर्वित होते हैं। वे जीव कर्म के उदय के अनुरूप ही उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकर देव ने कहा है। ३. इसके बाद यह वर्णन है कि कई जीव वृक्षयोनिक होते हैं, वे वृक्ष में उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित एवं वृद्धि को प्राप्त होते है, वृक्ष में उत्पन्न होने वाले, उसी में स्थित रहने और उसी में संवृद्धि पाने वाले वृक्षयोनिक जीव कर्म के वशीभूत होकर कर्म के ही कारण उन वृक्षों में आकर वृक्षयोनिक जीवों में वृक्षरूप में उत्पन्न होते हैं, वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के रस का आहार करते हैं, इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी यावत् । वनस्पति के शरीरों का भी आहार करते हैं। वे त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त करते हैं, वे पूर्व में विध्वस्त (अचित्त) किये हुए, पूर्व में आहार किये हुए, त्वचा द्वारा आहार किये हुए विपरिणत तथा आत्मसात् किये हुए उस शरीर का सर्वात्मना आहार करते हैं। उन वृक्षयोनिक वृक्षों के शरीर नाना वर्ण यावत् नाना प्रकार के पुद्गलों से विकुर्वित होते हैं, वे जीव कर्मोदयवश वृक्षयोनिक वृक्षों में , उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थकर देव ने कहा है। ४. इसके बाद यह वर्णन है कि इस वनस्पतिकाय वर्ग में कई जीव वृक्षयोनिक होते हैं, वे वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही संवर्द्धित होते हैं, वे वृक्षयोनिक जीव उसी में उत्पन्न स्थित एवं संवृद्ध होकर कर्मों के वशीभूत होकर कर्म के ही कारण उन वृक्षयोनिक वृक्षों में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के रस का आहार करते हैं, इसके अतिरिक्त वे जीव नाना प्रकार के पृथ्वी यावत् वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं, वे जीव नाना प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों के शरीरों को अचित्त करते हैं। वे परिविध्वस्त (अचित्त) किये हुए शरीरों को यावत् सर्वात्मना आहार करते हैं। उन वृक्षयोनिक मूल यावत् बीज रूप जीवों के शरीर नाना वर्ण यावत् नाना प्रकार के पुद्गलों से बने हुए होते हैं। ये जीव कर्मोदय वश ही वहाँ उत्पन्न होते हैं, ऐसा तीर्थंकर देव ने कहा है। १. इसके बाद यह वर्णन है कि इस वनस्पतिकाय जगत में कर्ड वृक्षयोनिक जीव वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित रहते हुए बढ़ते हैं। उसी में उत्पन्न, स्थित और संवर्धित होने वाले वे वृक्षयोनिक जीव कर्मोदयवश तथा कर्म के कारण ही वृक्षों में आकर उन वृक्षयोनिक वृक्षों में अध्यारूह (वृक्ष के ऊपर उत्पन्न होने वाली) वनस्पति रूप में उत्पन्न होते हैं। ४. अहावरं पुरक्खायं इहेगइया रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तव्वक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउटैति।ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव वणस्सइसरीरं नाणाविहाणं तस थावराणं सरीरं अचित्तं कुब्बंति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं जाव सारुविकडं संतं सबप्पणाए आहार आहारेंति, अवरे वि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं मूलाणं जाव बीयाणं सरीरा नाणावण्णा जाव नाणाविहसरीरपोग्गलविउब्विया ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंतीतिमक्खायं। १. अहावरं पुरक्खायं-इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तब्बक्कमा कम्मोवगा कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहिं अज्जोरुहित्ताए विउट्टति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति,
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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