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________________ ३७३ प्र. ५. भन्ते ! सर्वार्थसिद्ध देवों को कितने काल में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ? उ. गौतम ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। आहार अध्ययन प. ५.सब्बट्ठसिद्धगदेवाणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ? उ. गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पज्जइ। -पण्ण.प.२८,उ.१,सु.१८२९-१८५२ २२. विसिट्ठ विमाणवासीदेवाणं आहारट्ठे परूवणं१. जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहसस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ। -सम. सम.१,सु.४४,४५ २. जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवण्णं सुभगंधं सुभलेसं सुभफास सोहम्मवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा २२. विशिष्ट विमाणवासी देवों की आहार इच्छा का प्ररूपण१. जो देव सागर, सूसागर, सागरकान्त, भव, मनु, मानुषोत्तर और लोकहित विमानों में देवरूप में उत्पन्न हुए हैंउन देवों को एक हजार वर्ष के बाद भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है। २. जो देव शुभ, शुभकान्त, शुभवर्ण, शुभगन्ध, शुभलेश्य, शुभस्पर्श और सौधर्मावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न हुए हैं उन देवों को उत्कृष्ट दो हजार वर्ष के बाद भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है। ३. जो देव आभंकर, प्रभंकर, आभंकर-प्रभंकर, चन्द्र, चन्द्रावर्त, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रशृंग, चन्द्रसृष्ट, चन्द्रकूट और चन्द्रोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न हुए हैंउन देवों को तीन हजार वर्ष के बाद भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है। ४. जो देव कृष्टि, सुकृष्टि, कृष्टिकावर्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टिकान्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टिग, कृष्टिसृष्ट, कृष्टिकूट और कृष्ट्युत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न तेसिणं देवाणं दोहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ। -सम. सम.२, सु.२०,२२ ३. जे देवा आभंकर, पभंकरं, आभंकर-पभंकर चंद चंदावत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं चंदसिंगं चंदसिट्ठ चंदकूडं चंदुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णातेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ। सम. सम.३, सु.२१, २३ ४. जे देवा किठिं सुकिठिं किट्ठियावत्तं किटिठप्पभं किट्टिकंतं किट्ठिवण्णं किट्ठिलेसं किट्ठिज्झयं किट्ठिसिंग किट्ठिसिट्ठ किट्ठिकूडं किठूत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णातेसि देवाणं चउहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ। -सम. सम.४,सु.१५, १७ ५. जे देवा वायं सुवायं वातावत्तं वातप्पभं वातकंतं वितावण्णं वातलेसं वातज्झयं वातसिंग वातसिट्ठ वातकूडं वातुत्तरवडेंसगं सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिंगं सूरसिट्ठ सूरकूडं सूरुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णातेसि णं देवाणं पंचहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ। सम. सम.५, सु. १९,२१ ६. जे देवा सयंभु सयंभुरमणं घोसं सुघोसं महाघोसं किट्ठियोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीरावत्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंग वीरसिट्ठ वीरकूडं वीरुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णातेसिणं देवाणं छहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ। -सम. सम.६, सु. १४,१६ ७. जे देवा समं समप्पभं महापभं पभासं भासुरं विमल कंचणकूडं सणंकुमारवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा उन देवों के चार हजार वर्ष के बाद भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है। ५. जो देव वात, सुवात वातावर्त्त, वातप्रभ, वातकान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज वातशृंग वातसृष्ट, वातकूट और वातोत्तरावतंसक तथा सूर, सुसूर, सूरावत, सूरध्वज, सूरशृंग सूरसृष्ट, सूरकूट और सूरोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न हुए हैंउन देवों को पाँच हजार वर्ष के बाद भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है। ६. जो देव स्वयंभू, स्वयंभूरमण, घोस, सुघोस, महाघोस, कृष्टिघोष वीर, सुवीर, वीरगत, वीरश्रेणिक, वीरावत, वीरप्रभ, वीरकान्त, वीरकर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरभंग वीरसृष्ट वीरकूट और वीरोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न हुए हैंउन देवों को छह हजार वर्ष के बाद भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है। ७. जो देव सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, विमल, कांचनकूट और सनत्कुमारावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न हुए हैं
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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