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________________ आहार अध्ययन उ. गोयमा ! घाणिंदिय-जिभिंदिय-फासिंदियवेमायत्ताए ते तेसिं भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। दं. १९. चरिंदियाणं चक्विंदिय-धाणिंदिय-जिभिंदियफासिंदियवेमायत्ताए ते तेसिं भुज्जो-भुज्जो परिणमंति, ३६९ उ. गौतम ! वे पुद्गल घ्राणेन्द्रिय जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से पुनः-पुनः परिणत होते हैं। दं. १९. (चतुरिन्द्रिय द्वारा आहार के रूप में गृहीत पुद्गल (चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय की) विमात्रा से पुनः-पुनः परिणत होते हैं। शेष कथन त्रीन्द्रियों के समान समझना चाहिए। सेसं जहा तेइंदियाणं। -पण्ण. प. २८, उ.१, सु. १८१९-१८२३ २०. पंचेंदियतिरिक्खाईसुआहारट्ठिआइदारसत्तगं दं.२०-२३.पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया जहा तेइंदिया। णवर-तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से जहण्णेण अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेण छट्ठभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ। प. पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति? उ. गोयमा ! सोइंदिय-चक्विंदिय-धाणिंदिय-जिभिंदिय फासेंदियवेमायत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। दं.२१. मणूसा एवं चेव। णवरं-आभोगणिब्वत्तिए जहण्णेण अंतोमुत्तस्स, उक्कोसेण अट्ठमभत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ। दं.२२. वाणमंतरा जहा णागकुमारा दं.२३.एवं जोइसिया वि। णवर-आभोगणिब्वत्तिए जहण्णेण दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं वि दिवसपुहत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ। -पण्ण. प.२८, उ.१,सु. १८२४-१८२८ २१. वेमाणिथ देवेसुआहारहिआइदारसत्तर्ग दं.२४.एवं वेमाणिया वि। २०. पंचेंद्रिय तिर्यञ्चादि में आहारार्थी आदि सात द्वार दं.२०-२३. पंचेंद्रिय तिर्यञ्चयोनिकों का कथन त्रीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए। विशेष-उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उस आहार की अभिलाषा उन्हें जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट षष्ठभक्त से उत्पन्न होती है। प्र. भन्ते ! पंचेंद्रियतिर्यञ्चयोनिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुनःपुनः परिणत होते हैं? उ. गौतम ! आहार रूप में गृहीत वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः-पुनः परिणत होते हैं। दं.२१. मनुष्यों का कथन भी इसी प्रकार है। विशेष-उनकी आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में होती है और उत्कृष्ट अष्टमभक्त व्यतीत होने पर उत्पन्न होती है। दं. २२. वाणव्यन्तर देवों का आहार-सम्बन्धी कथन नागकुमारों के समान जानना चाहिए। दं.२३. इसी प्रकार ज्योतिष्क देवों का भी कथन है। विशेष-उन्हें आभोगनिवर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट भी दिवस-पृथक्त्व (अनेक दिनों) में उत्पन्न होती है। २१. वैमानिक देवों में आहारार्थी आदि सात द्वार दं. २४. इसी प्रकार वैमानिक देवों का भी आहार सम्बन्धी कथन करना चाहिए। विशेष-इनको अभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्षों में उत्पन्न होती है। शेष कथन असुरकुमारों के समान उनके उन पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. १-भन्ते ! सौधर्म कल्प में देवों को कितने काल के पश्चात् आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है ? उ. गौतम ! सौधर्म कल्प में आभोगनिर्वर्तित आहार की इच्छा जघन्य अनेक दिवस से, उत्कृष्ट दो हजार वर्ष से समुत्पन्न होती है। प्र. २. भन्ते ! ईशान कल्प में देवों को कितने काल के पश्चात् आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है ? उ. गौतम! जघन्य कुछ अधिक दिवस-पृथक्त्व में, णवर-आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेण दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पज्जइ। सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव ते तेसिं भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। प. १ सोहम्मे णं भंते ! देवाणं केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ? उ. गोयमा ! आभोगणिव्वत्तिए जहण्णेण दिवसपुहत्तस्स आहारढे समुप्पज्जइ उक्कोसेणं दोण्हं वाससहस्साणं आहारट्टे समुप्पज्जइ। प. २. ईसाणाणं भंते ! देवाणं केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ? उ. गोयमा ! जहण्णेण दिवसपुहत्तस्स साइरेगस्स आहारट्ठे समुप्पजइ १. तेसिणं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुष्पज्जइ। -सम. सम.१, सु.४३,४५ तेसिणं देवाणं दोहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुपज्जइ। -सम. सम.२, सु.२२
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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