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________________ ३६२ द्रव्यानुयोग-(१) कोई-कोई जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं।" अत्येगइया जाणंति, पासंति, आहारेंति।" -पण्ण.प.१५, उ.१, सु. ९९५-९९८ १४.आहार परवणस्स एक्कारसदारा १. सचित्ताऽऽ २. हारट्ठी, ३. केवइ किं ४. वा वि ५.सव्वओचेव। ६.कइभागं७.सव्वे खलु, ८.परिणामे चेव बोधब्वे॥ ९.एगिंदियसरीरादी, १०.लोमाहारे ११.तहेव मणभक्खी। १४.आहार-प्ररूपण के ग्यारह द्वार १. सचित्ताहार, २. आहारार्थी, ३. आहारेच्छाकाल, ४. क्या आहार करते हैं, ५. सब प्रदेशों से आहार करके, ६. कितने भाग का आस्वादन, ७. गृहीत पुद्गलों का आहार, ८. आहार के पुद्गलों का परिणमन, ९. एकेन्द्रियादि के शरीरों का आहार, १0. लोमाहार करने वाले, ११. मनोभक्षी आहार। इन पदों के द्वारा आहार संबंधी विवेचन किया जाएगा। एएसिं तुपयाणं, विभावणा होइ कायब्वा॥ __ -पण्ण. प.२८, उ. १, सु. १७९३ (गा.२१७-२१८) १५.चउवीसदंडएसुसचित्ताइ आहाराप. दं.१.णेरइया णं भंते ! किं सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, मीसाहारा? उ. गोयमा !णो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा,णो मीसाहारा। १५.चौबीस दण्डकों में सचित्तादि आहारप्र. दं.१. भंते ! क्या नैरयिक सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी होते हैं ? उ. गौतम ! नैरयिक सचित्ताहारी नहीं होते और मिश्राहारी भी नहीं होते हैं, किन्तु अचित्ताहारी होते हैं। दं. २-११, २२-२४. इसी प्रकार असुरकुमारों से वैमानिको पर्यन्त के सभी देव जानने चाहिए। दं.१२-२१. पृथ्वीकाय से मनुष्यों पर्यन्त सचित्ताहारी भी हैं, अचित्ताहारी भी हैं और मिश्राहारी भी हैं। दं. २-११, २२-२४ एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिया सव्वे देवा। दं.१२-२१. पुढविकाइया जाव मणूसा सचित्ताहारा वि, अचित्ताहारा वि,मीसाहारा वि। -पण्ण. प.२८, उ.१, सु. १७९४ १६.नेरइएसुआहारहिआइदारसत्तगं प. १. णेरइया णं भंते ! आहारट्ठी? उ. हंता, गोयमा !आहारट्ठी। प. २. णेरइया णं भंते ! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ? उ. गोयमा ! णेरइयाणं आहारे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा १.आभोगणिव्वत्तिए य,२.अणाभोगणिव्वत्तिए य। (१) तत्यणंजे से अणाभोगणिव्वत्तिए, सेणं अणुसमयमविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ। १६. नैरयिकों में आहारार्थी आदि सात द्वार प्र. १. भंते ! क्या नैरयिक आहारार्थी होते हैं ? उ. हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं। प्र. २.भंते ! नैरयिकों को कितने काल के पश्चात् आहार की इच्छा समुत्पन्न होती है? उ. गौतम ! नैरयिकों का आहार दो प्रकार का कहा गया है, यथा१.आभोगनिर्वर्तित, २. अनाभोगनिर्वर्तित। (१) उनमें से जो अनाभोगनिर्वर्तित हैं, उन्हें आहार की अभिलाषा प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होती है। (२) उनमें जो आभोगनिर्वर्तित है, उसे आहार की अभिलाषा असंख्यात-समय के अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है। प्र. ३. भंते ! नैरयिक कौन-सा आहार ग्रहण करते हैं ? उ. गौतम ! वे द्रव्यतः-अनन्तप्रदेशी (पुद्गलों का) क्षेत्रतः-असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ (रहे हुए), कालतः-किसी भी (अन्यतर) कालस्थिति वाले, भावतः-वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्शवान् पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं। (२) तत्यणंजे से आभोगणिव्वत्तिए, से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए आहारट्ठे समुप्पज्जइ। प. ३.णेरइया णं भंते ! किमाहारमाहारेंति? उ. गोयमा !दव्वओ अणंतपदेसियाई, खेत्तओअसंखेज्जपदेसोगाढाई, कालओ अण्णतरठिईयाई, भावओवण्णमंताई, गंधमंताई, रसमंताई, फासमंताईं। १. विया.स.१८,उ.३सु.(९/२-६) २. विया.स.१,उ.१,सु.६/१,३.
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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