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प्रस्तावना
- डॉ. सागरमल जैन
यह द्रव्यानुयोग तीन खण्डों में प्रकाशित हो रहा है। प्रथम खण्ड में प्रकाशित अध्ययनों की सूची अनुक्रमणिका में उपलब्ध है। द्वितीय खण्ड में संयत, लेश्या, क्रिया, आश्रव, वेद, कर्म, वेदना, कषाय, गति, नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति एवं समुद्घात के अध्ययनों का निरूपण है। तृतीय खण्ड में व्युत्क्रान्ति, गर्भ, युग्म, गम्मा, आत्मा, चरमाचरम, अजीव, पुद्गल एवं प्रकीर्णक अध्ययन सम्मिलित हैं।
इन अध्ययनों के प्रारम्भ में डॉ. धर्मचन्द जैन, जोधपुर द्वारा लिखे गये आमुख उन अध्ययनों की विषय-वस्तु को स्पष्ट कर देते हैं। डॉ. सागरमल जी ने पर्याप्त श्रम करके द्रव्यानुयोग के मुख्य प्रतिपाद्य विषय जैसे पन्द्रव्य, इन्द्रिय, लेश्या, कषाय, कर्म सिद्धान्त आदि पर अपनी भूमिका में विशेष प्रकाश डाला है। डॉ. सागरमल जी ने अनेक प्रश्न उठाते हुए दार्शनिक शैली में उनका विस्तृत समाधान प्रस्तुत किया है। भूमिका में जैन दर्शन की तत्त्व मीमांसा के प्रायः सभी पक्ष समाहित हो गए हैं।
यह भूमिका मात्र द्रव्यानुयोग के विभिन्न अध्ययनों की विषय-वस्तु को ही स्पष्ट नहीं करती अपितु सम्पूर्ण जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा को प्रस्तुत करती है।
आशा है इससे विद्वज्जनों को तोष होगा।
- प्रधान सम्पादक
जैन.
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आगम साहित्य की व्याख्या एवं उनमें वर्णित विषय-वस्तु को मुख्य रूप से जिन चार विभागों में वर्गीकृत किया गया है, "अनुयोग कहे जाते हैं। अनुयोग चार हैं - ( १ ) द्रव्यानुयोग, (२) गणितानुयोग, (३) चरणकरणानुयोग और (४) धर्मकथानुयोग | इन चार अनुयोगों में से जिस अनुयोग के अन्तर्गत विश्व के मूलभूत घटकों के स्वरूप के सम्बन्ध में विवेचन किया जाता है उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं खगोल-भूगोल सम्बन्धी विवरण गणितानुयोग के अन्तर्गत आते हैं धर्म और सदाचरण संबंधी विधि-निषेधों का विवेचन चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत होता है और धर्म एवं नैतिकता में आस्था को दृढ़ करने हेतु सदाचारी, सत्पुरुषों के जो आख्यानक ( कथानक) प्रस्तुत किये जाते हैं, वे धर्मकयानुयोग के अन्तर्गत आते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन चार अनुयोगों में भी द्रव्यानुयोग का सम्बन्ध तात्त्विक या दार्शनिक चिन्तन से है जहाँ तक हमारे दार्शनिक चिन्तन का प्रश्न है आज हम उसे तीन भागों में विभाजित करते हैं - १. तत्त्व-मीमांसा, २ ज्ञान-मीमांसा और ३. आचार-मीमांसा । इन तीनों में से तत्त्व-मीमांसा एवं ज्ञान-मीमांसा दोनों ही द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत आते हैं। इनमें भी जहाँ तक तत्त्व-मीमांसा का सम्बन्ध है, उसका प्रमुख कार्य जगत् के मूलभूत घटकों, उपादानों या पदार्थों और उनके कार्यों की विवेचना करना है। तत्त्व-मीमांसा का आरम्भ तभी हुआ होगा जब मानव में जगत् के स्वरूप और उसके मूलभूत उपादान घटकों को जानने की जिज्ञासा प्रस्फुटित हुई होगी तथा उसने अपने और अपने परिवेश के संदर्भ में चिंतन किया होगा। इसी चिन्तन के द्वारा तत्त्वमीमांसा का प्रादुर्भाव हुआ होगा। मैं कौन हूँ", "कहाँ से आया हूँ", "यह जगत् क्या है", "जिससे यह निर्मित हुआ है, वे मूलभूत उपादान घटक क्या हैं", "यह किन नियमों से नियंत्रित एवं संचालित होता है” इन्हीं प्रश्नों के समाधान हेतु ही विभिन्न दर्शनों का और उनकी तत्त्व विषयक गवेषणाओं का जन्म हुआ। जैन परम्परा में भी उसके प्रथम एवं प्राचीनतम आगम ग्रंथ आचारांग का प्रारम्भ भी इसी चिन्तना से होता है कि “मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, इस शरीर का परित्याग करने पर कहाँ जाऊँगा ।"१ वस्तुतः ये ही ऐसे प्रश्न हैं जिनसे दार्शनिक चिन्तन का विकास होता है और तत्त्व - मीमांसा का आविर्भाव होता है।
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तत्त्व-मीमांसा वस्तुतः विश्व व्याख्या का एक प्रयास है। इसमें जगत् के मूलभूत उपादानों तथा उनके कार्यों का विवेचन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया जाता है। विश्व के मूलभूत घटक जो अपने अस्तित्व के लिये किसी अन्य घटक पर आश्रित नहीं हैं तथा जो कभी भी अपने स्व-स्वरूप का परित्याग नहीं करते हैं वे सत् या द्रव्य कहलाते हैं। विश्व के तात्त्विक आधार या मूलभूत उपादान ही सत् या द्रव्य कहे जाते हैं और जो इन द्रव्यों का विवेचन करता है वही द्रव्यानुयोग है।
विश्व के सन्दर्भ में जैनों का दृष्टिकोण यह है कि यह विश्व अकृत्रिम है (लोगो अकिहिमो खलु
मूलाचार, गाथा ७/२)। इस लोक का कोई निर्माता या सृष्टिकर्ता नहीं है। अर्धमागधी आगम साहित्य में भी लोक को शाश्वत बताया गया है। उसमें कहा गया है कि यह लोक अनादिकाल से है और रहेगा। ऋषिभाषित के अनुसार लोक की शाश्वतता के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन भगवान पार्श्वनाथ ने किया १. आचारांग, १/१/१/१
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