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________________ २२८ सुहमवणस्सइकाइयस्स सुहमणिगोदस्सवि एवं चेव जाव खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। पुढविकाइयाईणं वणस्सइकालो। एवं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाण वि। -जीवा. पडि.५, सु.२१६ १३२. बायराणं अंतरकाल.परूवणं अंतरं बायरस्स, बायरवणस्सइस्स, णिओदस्स, बादरणिओदस्स एएसिं चउण्हवि पुढविकालो जाव असंखेज्जा लोया, सेसाणं वणस्सइकालो। - द्रव्यानुयोग-(१) ] सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोद का अन्तर भी इतना ही है यावत् क्षेत्र की अपेक्षा अंगल के असंख्यातवें भाग जितना आकाश प्रदेशों प्रमाण है। पृथ्वीकायिकों आदि का अंतर वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार अपर्याप्तकों पर्याप्तकों का अंतर काल जानना चाहिए। १३२. बादरों के अंतरकाल का प्ररूपण औधिक बादर, बादर वनस्पति, निगोद और बादर निगोद इन चारों का अन्तरकाल पृथ्वीकाल के बराबर है यावत् क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों प्रमाण है। शेष-(बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक इन छहों) का अन्तर वनस्पतिकाल जानना चाहिए। इसी प्रकार बादर पृथ्वीकायिकों के पर्याप्तक और अपर्याप्तकों का अंतर जानना चाहिए। १३३. त्रस आदि के अंतरकाल का प्ररूपण त्रस का अन्तर वनस्पतिकाल है। स्थावर का अन्तर कुछ अधिक दो हजार सागरोपम है। नोत्रस-नोस्थावर का अन्तर नहीं है। १३४. सूक्ष्मादि के अंतरकाल का प्ररूपण सूक्ष्म का अन्तर बादरकाल है। बादर का अन्तर सूक्ष्मकाल है। तीसरे नोसूक्ष्म नोबादर का अन्तर नहीं है। एवं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण वि अंतरं। -जीवा. पडि.५, सु. २२० १३३. तसाईणं अंतरकाल परूवणं तसस्स अंतरं वणस्सइकालो। थावरस्स अंतरं दो सागरोवमसहस्साई साइरेगाई। णोतस-णोथावरस्स णस्थि अंतरं। -जीवा. पडि.९, सु.२४३ १३४. सुहुमाईणं अंतरकाल परूवणं सुहुमस्स अंतरं बायरकालो। बायरस्स अंतरं सुहुमकालो। तइयस्स नो सुहुम नो बायरस्स णस्थि अंतरं । -जीवा. पडि.९, सु. २४० १३५. पज्जत्तगाईणं अंतरकाल परूवणं पज्जत्तगस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। अपज्जत्तगस्स जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं साइरेगं, तइयस्स णत्थि अंतरं। -जीवा. पडि. ९, सु. २३९ १३६. सिद्धासिद्ध जीवाणं अप्पबहुत्तं प. एएसि णं भंते ! सिद्धाणं असिद्धाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा जाव विसेसाहिया वा? उ. गोयमा !१. सव्वत्योवा सिद्धा, २.असिद्धा अणंतगुणा। -जीवा. पडि. ९, सु. २३१ १३७. दिसाणुवाएणं संसारीसिद्ध जीवाणं अप्पबहुत्तंदिसाणुवाएणं १. सव्वत्थोवा जीवा पच्चत्थिमेणं, १३५. पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के अंतरकाल का प्ररूपण पर्याप्तक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है। अपर्याप्तक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है। तृतीय (नोपर्याप्तक) नोअपर्याप्तक का अन्तर नहीं है। १३६. सिद्ध-असिद्ध जीवों का अल्पबहुत्व प्र. भंते ! इन सिद्धों और असिद्धों में कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक है? उ. गौतम ! १. सबसे अल्प सिद्ध हैं, २. उनसे असिद्ध अनन्तगुणे हैं। १३७. दिशाओं की अपेक्षा संसारी सिद्ध जीवों का अल्पबहुत्वदिशाओं की अपेक्षा १. सबसे अल्प जीव पश्चिम दिशा में हैं, १. ओहे य बायरतरु, ओघनिगोदे बायरणिओए य। कालमसंखेज्जं अंतरं, सेसाणं वणस्सइकालो ॥१॥
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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