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________________ ( २२२ ) प. सुहमेणं भंते ! सुहमे त्ति कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। इसी प्रकार सूक्ष्म काय अन्तमु असंख्यात सुहुमपुढविकाइए, सुहुमआउकाइए, सुहुमतेउकाइए, सुहुमवाउकाइए, सुहुमवणफइकाइए, सुहमणिगोए वि जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। प. सुहमे अपज्जत्तए णं भंते ! सुहुम अपज्जत्तए त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। पुढविकाइय, आउकाइय, तेउकाइय, वाउकाइय वणस्सइकाइयाण य एवं चेव। पज्जत्तयाण वि एवं चेव। प. बादरेणं भंते ! बादरे त्ति कालओ केवचिरं होइ? द्रव्यानुयोग-(१) प्र. भंते ! सूक्ष्म जीव सूक्ष्म रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक (अर्थात्) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तक और क्षेत्रतः असंख्यातलोक तक सूक्ष्म जीव सूक्ष्मपर्याय में रहता है। इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अकायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोद भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक (अर्थात्) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तक एवं क्षेत्रतः असंख्यात लोक तक ये सूक्ष्म पृथ्वी आदि के रूप में रहते हैं। प्र. भंते ! सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में कितने काल तक रहता है? उ. गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। (सूक्ष्म) पृथ्वीकायिक, अकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक (अपर्याप्तक की कायस्थिति) के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। (इन पूर्वोक्त) सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि के (पर्याप्तकों के विषय में भी ऐसा ही ) समझना चाहिए। प्र. भंते ! बादर जीव बादर जीव के रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (अर्थात)कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तक, क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र प्रमाण है? प्र. भंते ! बादर पृथ्वीकायिक बादर पृथ्वीकायिक के रूप में कितने काल तक रहता है। उ. गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागरोपम तक रहता है। इसी प्रकार बादर अकायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुकायिक के विषय में भी समझना चाहिए। प्र. भंते ! बादर वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक के रूप में कितने काल तक रहता है? उ. गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (अर्थात्) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तक, क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र प्रमाण है। प्र. भंते ! प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर बादरवनस्पतिकायिक के रूप में कितने काल तक रहता है? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागरोपम तक रहता है। उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ,खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं। प. बादरपुढविकाइए णं भंते ! बादरपुढविकाइए त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ। एवं बादर आउकाइए वि, बादर तेउकाइए वि, बादर वाउकाइए वि। प. बादरवणस्सइकाइए णं भंते ! बादर वणस्सइकाइए त्ति कालओ केवचिरं होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभाग। प. पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइए णं भंते ! पत्तेयसरीर बादरवणप्फइकाइए त्ति कालओ केवचिर होइ? उ. गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ। १. जीवा.पडि.५,सु.२१५
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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