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________________ २०८ देवा, देवीओ, मणुस्सा, मणुस्तीओ, तिरिक्जोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ, परिग्गहियाओ भवति, आसण-सयण-भंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचित-अचित मीसियाई दव्या परिगडियाई भवन्ति से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ "असुरकुमारा सारंभा सपरिव्हा, नो अणारंभा अपरिग्गहा। दं. ३-११. एवं जाव थणियकुमारा । दं. १२-१६. एगिंदिया जहा नेरइया । प. दं. १७ वेइंदिया णं भते किं सारंभा सपरिग्गहा ? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? उ. गोथमा ! बेइंदिया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा। प. सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ " बेइंदिया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा ?" उ. गोयमा ! बेइंदिया णं पुढविकाइयं समारंभंति जाव तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गठिया भवति बाहिरया भंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति । सचित्त-अचित्त-मीसयाई दव्वाइं परिग्गहियाई भवति । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ "वेइदिया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा । " दं. १८-१९. एवं जाव चउरिंदिया । प. दं. २०. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते किं सारंभा सपरिग्गहा, उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? उ. गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सारंभा सपरिग्गहा नो अणारंभा अपरिग्गहा। प से केणट्ठेणं भंते! एवं बुच्चइ “पंचिदियतिरिक्खजोणिया सारंभा सपरिम्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा ? उ. गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं पुढविकाइयं समारंभंति जाव तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति । कम्मा परिग्गहिया भवंति, का कूडा सेला सिहरी, पब्भारा परिग्गहिया भवंति, जल-थल - बिल-गुह-लेणा परिग्गहिया भवंति, द्रव्यानुयोग - (१) 7 देव देवियों मनुष्य मनुष्यणियों तिर्यञ्चयोनिकों तिर्यञ्चयोगिनीयों (तिचनी ओं) को परिगृहीत किए हुए हैं, वे आसन, शयन, भाण्ड (मिट्टी के बर्तन) मात्रक (धातुओं के पात्र) एवं विविध उपकरणों को परिगृहीत किये हुए हैं, सचित्त अचित्त तथा मिश्र द्रव्यों को परिगृहीत किये हुए हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वे आरम्भयुक्त एवं परिग्रहसहित हैं, किंतु अनारंभी और अपरिग्रही नहीं है। दं. ३-११. इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना चाहिए। दं. १२-१६. एकेन्द्रियों के ( आरंभ परिग्रह का वर्णन ) नैरयिकों के समान कहना चाहिए। प्र. दं. १७. भंते ! द्वीन्द्रिय जीव क्या सारम्भ सपरिग्रही होते हैं, अथवा अनारंभी एवं अपरिग्रही होते हैं ? उ. गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव सारंभ सपरिग्रही होते हैं, अनारंभी एवं अपरिग्रही नहीं होते हैं। किन्तु प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'द्वीन्द्रिय जीव सारंभ सपरिग्रही होते हैं, किन्तु अनारम्भी अपरिग्रही नहीं होते है ?" उ. गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव पृथ्वीकाय से त्रसकाय पर्यन्त का समारंभ करते हैं। शरीर को परिगृहीत किये हुए हैं, भाण्ड मात्र तथा विविध उपकरण परिगृहीत किये हुए हैं, सचित्त अचित्त तथा मिश्र द्रव्यों को परिगृहीत किये हुए हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'द्वीन्द्रिय जीव सारंभ सपरिग्रही होते हैं किन्तु अनारंभी एवं अपरिग्रही नहीं होते हैं।' दं. १८-१९. इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. दं. २०. भंते ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव क्या आरंभ परिग्रहयुक्त हैं अथवा आरम्भ परिग्रहरहित हैं ? उ. गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव, आरम्भ परिग्रह युक्त हैं किन्तु आरम्भ परिग्रहरहित नहीं है (क्योंकि उन्होंने शरीर कर्मों को परिगृहीत किये हैं) प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है किपंञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव आरम्भ परिग्रह युक्त किन्तु आरंभ परिग्रह रहित नहीं है? हैं उ. गौतम ! पंञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोगिक जीव पृथ्वीकाय से काय पर्यन्त का समारंभ करते हैं, शरीर को परिगृहीत किये हुए हैं। कर्म को परिगृहीत किये हुए हैं। टंक (पर्वत से विच्छिन्न टुकड़ा) कूट, शैल (पर्वत), शिखर एवं प्राग्भार (तलहटी) परिगृहीत किये हुए हैं। जल, स्थल, बिल, गुफा, लयन परिगृहीत किये हुए हैं।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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