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________________ १४७ जीव अध्ययन विंट समंस-कडाहं एयाहं होंति एगजीवस्स। पत्तेयं पत्ताई सकेसरमकेसर मिंजा।। सप्फास सज्जाए उब्वेहलिया य कुहण कंदुक्के । एए अणंतजीवा, कंडुक्के होइ भयणा उ।। जोणिभूए बीए जीवो, वक्कमइ सो व अण्णो वा। जो वि य मूले जीवो, सो वि य पत्ते पढमयाए।। सव्वो वि किसलओ खलु, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ। सोचेव विवढंतो होइ,परित्तो अणंतो वा।। समयं वकंताणं समयं,तेसिं सरीरनिव्बत्ती। समयं आणुग्गहणं, समयं ऊसास-नीसासे।। एक्कस्स उ जंगहणं, बहूण साहारणाण तं चेव। जंबहुयाणं गहणं,समासओ तं पि एगस्स।। वृन्त, गुद्दा और गिर के सहित तथा केसर सहित या अकेसर, मिंजा, ये सब एक-एक जीव से अधिष्ठित होते हैं। सप्फाक, सद्यात, उव्वेहलिका और कुहण तथा कन्दुक्य ये सब वनस्पतियां अनन्तजीवात्मक होती हैं किन्तु कन्दुक्य वनस्पति में भजना है। योनिभूत बीज में जीव उत्पन्न होता है, वही बीज का जीव मरकर अथवा अन्य कोई जीव उत्पन्न होता है। जो जीव मूल में होता है प्रथम पत्र के रूप में भी वही जीव परिणत होता है। सभी किसलय (प्रथम पत्र) ऊगता हुआ अवश्य ही अनन्तकाय कहा गया है। वही (किसलयरूप अनन्तकायिक) वृद्धि पाता हुआ प्रत्येक शरीरी या अनन्तकायिक हो जाता है। एक साथ उत्पन्न हुए उन (साधारण वनस्पतिकायिक जीवों की शरीर-निष्पत्ति) एक ही काल में होती है, एक साथ ही श्वासोच्छ्वास ग्रहण होता है। एक काल में ही उच्छ्वास और निःश्वास होता है। एक जीव का जो ग्रहण करना है, वही बहुत-से जीवों का ग्रहण करना है और जो ग्रहण बहुत-से जीवों का होता है, वही एक का ग्रहण होता है। साधारण जीवों का आहार भी साधारण ही होता है, श्वासोच्छ्वास का ग्रहण साधारण होता है। यह साधारण का लक्षण समझना चाहिए। जैसे अग्नि में अत्यन्त तपाया हुआ लोहे का गोला, तपे हुए तपनीय सोने के समान सारा का सारा अग्नि में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार निगोद जीवों का निगोदरूप एक शरीर में परिणमन होना समझ लेना चाहिए। एक, दो, तीन, संख्यात अथवा (असंख्यात) निगोदों (के पृथक्-पृथक् शरीरों) का देखना शक्य नहीं है। केवल अनन्तनिगोदजीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में यदि एक-एक निगोदजीव को स्थापित किया जाए और उनका माप किया जाए तो ऐसे-ऐसे अनन्त लोकाकाश हो जाते हैं, (किन्तु लोकाकाश तो एक ही है, वह भी असंख्यात-प्रदेशी है।) एक-एक लोकाकाश-प्रदेश में, प्रत्येक वनस्पतिकाय के एक-एक जीव को स्थापित किया जाए और उन्हें मापा जाए तो ऐसे-ऐसे असंख्यात लोकाकाश हो जाते हैं। साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाणगहणं च। साहारणजीवाणं,साहारणलक्खणं एयं।। जह अयगोलो धंतो,जाओ तत्ततवणिज्जसंकासो। सव्वो अगणिपरिणओ, निगोयजीवे तहा जाण।। एगस्स दोण्ह तिण्ह व,संखेज्जाण व न पासिउं सक्का। दीसंति सरीराई णिओयजीवाणऽणताणं ।। लोगागासपएसे णिओयजीवं ठवेहि एक्कक्के । एवं मवेज्जमाणा हवंति लोया अणंता उ।। लोगागासपएसे परित्तजीवं ठवेहि एक्केक। एवं मविज्जमाणा हवंति लोया असंखेज्जा। पत्तेया पज्जत्ता पयरस्स असंखभागमेत्ता उ। लोगाऽसंखाऽपज्जत्तगाण साहारणमणंता।। प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्तक जीव घनीकृत लोक प्रतर में असंख्यातभाग मात्र होते हैं तथा अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों का प्रमाण असंख्यात लोक के बराबर है और साधारण जीवों का परिमाण अनन्तलोक के बराबर हैं। (एएहिं सरीरेहिं पच्चक्खं ते परूविया जीवा। सुहुमा आणागेज्जा चक्खुप्फासंणतं एसिं।) (इन पूर्वोक्त शरीरों के द्वारा स्पष्ट रूप से उन बादरनिगोद जीवों की प्ररूपणा की गई है। सूक्ष्म निगोदजीव केवल आज्ञाग्राह्य हैं। क्योंकि ये आंखों से दिखाई नहीं देते।)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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