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________________ ११४ द्रव्यानुयोग-(१) २०. संसारी सिद्ध जीवाणं वुड्ढि हाणि अवट्ठिइ कालमाण य २०. संसारी सिद्ध जीवों की वृद्धि हानि अवस्थिति और कालमान परूवणं का प्ररूपणभंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ भंते ! यों कह कर भगवन गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी को वंदन नमस्कार किया और वंदन नमस्कार करके इस प्रकार पूछाप. जीवाणं भंते ! किं वड्ढति, हायंति, अवट्ठिया? प्र. भंते ! क्या जीव बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ? उ. गोयमा ! जीवा णो वड्ढंति, नो हायंति, अवट्ठिया। उ. गौतम ! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, किन्तु अवस्थित रहते हैं। प. नेरइया णं भंते ! कि वड्डति, हायंति, अवट्ठिया? प्र. भंते ! क्या नैरयिक बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ? उ. गोयमा ! नेरइया वड्ढंति विहायंति वि, अवट्ठिया वि। उ. गौतम ! नैरयिक बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। जहा नेरइया एवं जाव वेमाणिया। जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कहा उसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। प. सिद्धा णं भंते ! किंवड्ढंति, हायंति, अवट्ठिया? प्र. भंते ! सिद्ध जीव बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ? उ. गोयमा ! सिद्धा वड्डंति, नो हायंति, अवट्ठिया वि। उ. गौतम ! सिद्ध बढ़ते हैं किन्तु घटते नहीं हैं, वे अवस्थित रहते हैं। प. जीवाणं भंते ! केवइयं कालं अवट्ठिया? प्र. भंते ! जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? उ. गोयमा ! सव्वद्ध। उ. गौतम ! सदैव अवस्थित ही रहते हैं। प. नेरइया णं भंते ! केवइयं कालं वदति ? प्र. भंते ! नैरयिक कितने काल तक बढ़ते हैं ? उ. गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए उ. गौतम ! नैरयिक जीव जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंखेज्जइ भागं। आवलिका के असंख्यातवें भाग तक बढ़ते हैं। एवं हायंति वि। जिस प्रकार बढ़ने का काल कहा है, उसी प्रकार घटने का काल भी कहना चाहिए। प. नेरइया णं भंते ! केवइयं कालं अवट्ठिया? प्र. भंते ! नैरयिक कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? उ. गोयमा! जहन्नेणं एगं समय, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। उ. गौतम ! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। एवं सत्तसु वि पुढवीसु वड्दति, हायंति भाणियव्वं । इसी प्रकार सातों नरक-पृथ्वियों के जीवों का बढ़ना घटना कहना चाहिए। णवरं-अवट्ठिएसु इमं नाणत्तं,तं जहा विशेष-अवस्थित रहने के काल में यह भिन्नता है। यथारयणप्पभाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता, रत्नप्रभा पृथ्वी में अड़तालीस मुहूर्त, सक्करप्पभाए चोद्दस राइंदियाई, शर्कराप्रभापृथ्वी में चौदह दिन रात, वालुयप्पभाए मासं, बालुकाप्रभा पृथ्वी में एक मास, पंकप्पभाए दो मासा, पंकप्रभा पृथ्वी में दो मास, धूमप्पभाए चत्तारि मासा, धूमप्रभा पृथ्वी में चार मास, तमाए अट्ठ मासा, तमःप्रभा पृथ्वी में आठ मास, तमतमाए बारस मासा। तमस्तमःप्रभा पृथ्वी में बारह मास का अवस्थान-काल कहा गया है। असुरकुमारा वि वड्दति, हायंति जहा नेरइया। नैरयिक जीवों के समान असुरकुमार देवों की वृद्धि हानि के लिए कहना चाहिए। अवट्ठिया जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अट्ठचालीसं असुरकुमार देव जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अड़चालीस मुहुत्ता। (४८) मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। एवं दसविहा वि। इसी प्रकार दस ही प्रकार के भवनपतिदेवों की वृद्धि आदि का कथन करना चाहिए।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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