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________________ ( ११० । ११० उ. गोयमा ! अए, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च पुढविजीवसरीरा, द्रव्यानुयोग-(१) उ. गौतम ! लोहा, ताम्बा, कलई,शीशा, उपल और लोहे का काट ये सब द्रव्य पूर्वप्रज्ञापना की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं, और उसके बाद शस्त्रातीत यावत् अग्नि परिणामित होने पर ये अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते है। तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा त्ति वत्तव्वं सिया। -विया.स.५, उ.२,सु. १५ १३. अट्ठिचम्माईणं जीवाणं सरीर परूवणंप. अह णं भंते ! अट्ठी अट्ठिज्झामे, चम्मे चम्मज्झामे, रोमे रोमज्झामे, सिंगे सिंगज्झामे, खुरे खुरज्झामे, नखे - नखज्झामे, एएणं किं सरीरा ति वत्तव्यं सिया? उ. गोयमा ! अट्ठी, चम्मे, रोमे, सिंगे, खुरे, नहे, एए णं तसपाण जीवसरीरा अट्ठिज्झामे, चम्मज्झामे, रोमज्झामे, सिंगज्झामे खुरज्झामे, नखज्झामे एएणं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च तसपाणजीवसरीरा तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्यं सिया। ' -विया. स. ५, उ.२, सु.१६ १४. इंगालाइ जीवाणं सरीर परूवणंप. अह णं भंते ! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमए एएणं किं सरीरा ति वत्तव्वं सिया? उ. गोयमा ! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमए एए णं पुव्वभावपण्णवणाए- एगिंदियजीवसरीरप्पओगपरिणामिया वि जाव पंचिंदियजीवसरीरप्पओगपरिणामिया वि, १३. अस्थि चर्म आदि के जीवों की शरीर प्ररूपणाप्र. भंते ! हड्डी, अग्निप्रज्वलित हड्डी, चमड़ा, अग्निप्रज्वलित चमड़ा, रोम,अग्निप्रज्वलित रोम, सींग, अग्निप्रज्वलित सींग, खुर, अग्निप्रज्वलित खुर, नख, अग्निप्रज्वलित नख, ये सब किन जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं? उ. गौतम ! हड्डी, चमड़ा, रोम, सींग, खुर और नख ये सब त्रसजीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। अग्निप्रज्वलित हड्डी, चमड़ा, रोम, सींग और नख ये सब पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से तो त्रसजीवों के शरीर हैं किन्तु उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निपरिणामित होने पर ये अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। १४. अंगार आदि के जीवों की शरीर प्ररूपणाप्र. भन्ते ! अंगारे, राख, भूसा और गोबर इन सबको किन जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं? उ. गौतम ! अंगारे, राख, भूसा और गोबर, ये सब पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से एकेन्द्रियजीवों द्वारा अपने शरीर रूप प्रयोगों से (अपने व्यापार से) अपने साथ परिणामित एकेन्द्रिय शरीर यावत् पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर भी कहे जा सकते हैं। तत्पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निकाय परिणामित हो जाने पर वे अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया। -विया. स. ५, उ.२, सु. १७ १५.चंद दिळंतेण जीव गुणाणं वड्ढोऽवड्ढि परूवणं प. कहं णं भंते !जीवा वड्दति वा हायति वा? उ. गोयमा ! से जहाणामए बहुलपक्खस्स पाडिवयाचंदे पुण्णिमाचंदं पणिहाय हीणे वण्णेणं, हीणे सोम्मयाए, हीणे निद्धयाए, हीणे कंतीए एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेस्साए मंडलेणं, १५. चन्द्र के दृष्टांत द्वारा जीवगुणों की वृद्धि-हानि का प्ररूपण प्र. भंते ! जीव किस कारण से वृद्धि को प्राप्त होते हैं और किस __कारण से हानि को प्राप्त होते हैं ? . उ. गौतम ! जैसे कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है, सौम्यता से हीन होता है, स्निग्धता से हीन होता है, कान्ति से हीन होता है, इसी प्रकार दीप्ति (चमक) से, युक्ति (आकाश मंडल के साथ संयोग) से, छाया (प्रतिबिम्ब) से, प्रभा से, ओज से, लेश्या से और मण्डल (गोलाई) से हीन होता है, तदनन्तर कृष्णपक्ष की द्वितीया का चन्द्रमा प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से हीनतर होता है यावत् मण्डल से भी हीन तर होता है, तत्पश्चात् तृतीया का चन्द्र द्वितीया के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीनतर होता है यावत् मंडल से भी हीनतर होता है। इसी प्रकार इसी क्रम से हीन-हीन होता हुआ यावत् अमावस्या का चन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मण्डल से सर्वथा नष्ट होता है, तयाणंतरं च णं बीयाचंदे पाडिवयं चंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव मंडलेणं, तयाणंतरं च णं तइयाचंदे बिइयाचंद पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव मंडेलणं, एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे-परिहायमाणे जाव अमावस्साचंदे चाउद्दसिचंदं पणिहाय नठे वण्णेणं जाव नढे मंडलेणं।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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