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________________ ( ६४ ।। (४) ठिईए तिट्ठाणवडिए। (५) वण्ण,(६) गंध, (७) रस,(८) फासपज्जवेहि, (९) दोहिं नाणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, ओहिणाणपज्जवेहिं तुल्ले, मणपज्जवणाणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, द्रव्यानुयोग-(१) (४) स्थिति की अपेक्षा त्रिस्थानपतित है, (५) वर्ण, (६) गन्ध, (७) रस, (८) स्पर्श के पर्यायों, दो ज्ञान की पर्यायों की अपेक्षा षट्स्थानपतित है, अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, मनःपर्यवज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा षट्स्थान पतित है, (१०) तीन दर्शन पर्यायों की अपेक्षा षट्स्थानपतित है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं।" (१०) तिहिं दंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जहण्णोहिणाणीणं मणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता।" एवं उक्कोसोहिणाणी वि। अजहण्णमणुक्कोसोहिणाणी वि एवं चेव। णवरं-सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। जहा ओहिणाणी तहामणपज्जवणाणी विभाणियव्ये। णवर-ओगाहणट्ठयाए तिट्ठाणवडिए। जहा आभिणिबोहियणाणी तहा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य भाणियव्ये। जहा ओहिणाणी तहा विभंगणाणी विभाणियव्वे। इसी प्रकार उत्कृष्ट अवधिज्ञानी मनुष्यों के प्रर्यायों के लिए कहना चाहिए। इसी प्रकार मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के लिए भी कहना चाहिए। विशेष-स्वस्थान में यह षट्स्थानपतित है। जैसा अवधिज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के लिए कहा, उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के लिए भी कहना चाहिए। विशेष-अवगाहना की अपेक्षा त्रिस्थानपतित है। जैसा आभिनिबोधिक ज्ञानी के पर्यायों के लिए कहा उसी प्रकार मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के लिए भी कहना चाहिए। जिस प्रकार अवधिज्ञानी (मनुष्यों) के पर्यायों के लिए कहा उसी प्रकार विभंगज्ञानी (मनुष्यों) के पर्यायों के लिए भी कहना चाहिए। विशेष-अवगाहना त्रिस्थानपतित है। चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी (मनुष्यों) के पर्यायों का कथन आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के समान है। अवधिदर्शनी के पर्यायों का कथन अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के समान है। जहाँ ज्ञान है, वहां अज्ञान नहीं होते। जहाँ अज्ञान हैं वहाँ ज्ञान नहीं होते। जहाँ दर्शन है, वहाँ ज्ञान एवं अज्ञान दोनों में से कोई भी हो सकता है। प्र. भंते ! केवलज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं? णवर-ओगाहणट्टयाए तिट्ठाणवडिए। चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी आभिणिबोहियणाणी। ओहिदसणी जहा ओहिणाणी। य जहा जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णत्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा णत्थि, जत्थ दसणा तत्थ णाणा वि अण्णाणा वि। प. केवलणाणीणं. भंते ! मणुस्साणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। प. से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ____ "केवलणाणीणं मणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता।" उ. गोयमा ! केवलणाणी मणुस्से केवलणाणिस्स मणुसस्स (१) दव्वट्ठयाए तुल्ले, (२) पदेसठ्ठयाए तुल्ले, (३) ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, (४) ठिईए तिट्ठाणवडिए, उ. गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि- "केवलज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं ?" उ. गौतम ! एक केवलज्ञानी मनुष्य, दूसरे केवलज्ञानी मनुष्य से (१) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, (२) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है, (३) अवगाहना की अपेक्षा चतुःस्थानपतित है, (४) स्थिति की अपेक्षा त्रिस्थानपतित है,
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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