SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तिकाय अध्ययन : आमुख काय अर्थात् शरीर की भांति जो बहुप्रदेशी द्रव्य हो, उसे अस्तिकाय कहा जाता है। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल ये पांच द्रव्य बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय कहे जाते हैं, इसलिए काल अस्तिकाय नहीं कहा जाता। पुद्गल का एक अणु भी अस्तिकाय के अन्तर्गत आता है क्योंकि उसमें बहुप्रदेशी होने की योग्यता है। वह कभी स्कन्ध रूप था या स्कन्ध रूप हो जाएगा, इस प्रकार भूत एवं भविष्यकाल की अपेक्षा भी वह अस्तिकाय है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और एक जीव में असंख्यात प्रदेश होते हैं। आकाश में अनन्त प्रदेश होते हैं तथा पुद्गलास्तिकाय में संख्यात, असंख्यात या अनन्त प्रदेश होते हैं। जितना आकाश एक परमाणु के द्वारा रोका जाता है उसे प्रदेश कहते हैं और वह प्रदेश समस्त द्रव्यों के अणुओं को स्थान देने में समर्थ होता है। प्रस्तुत अध्ययन में धर्मास्तिकाय आदि के अनेक अभिवचन दिए हैं जो उनके विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करते हैं। धर्मास्तिकाय के जो धर्म, प्राणातिपातविरमण यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शन शल्य-विवेक आदि अभिवचन दिए गए हैं वे धर्मास्तिकाय को धर्म के निकट ले आते हैं। अधर्मास्तिकाय के अधर्म, प्राणातिपातअविरमण यावत् परिग्रह-अविरमण, क्रोध-अविवेक यावत् मिथ्यादर्शन शल्यअविवेक आदि अभिवचन दिए गए हैं वे अधर्मास्तिकाय को अधर्म या पाप के निकट ले आते हैं। आकाशास्तिकाय के गगन, नभ, सम, विषम आदि अनेक अभिवचन हैं। जीवास्तिकाय के अभिवचनों में जीव, प्राण, भूत, सत्त्व, चेता, आत्मा आदि के साथ पुद्गल को भी लिया गया है जो यह सिद्ध करता है कि पुद्गल शब्द का प्रयोग जीव के लिए भी होता रहा है, किन्तु यहां यह ज्ञातव्य है कि पुद्गल शब्द से पौद्गलिक देहधारी जीव का ही ग्रहण होता है, शुद्ध आत्मा का नहीं। पुद्गलास्तिकाय के अनेक अभिवचन हैं, यथा पुद्गल, परमाणु-पुद्गल, द्विप्रदेशी यावत् संख्यात प्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी आदि। पांच अस्तिकायों में जीवास्तिकाय को छोड़कर शेष चार अजीव हैं तथा पुद्गलास्तिकाय के अतिरिक्त शेष चार अरूपी हैं। पाँच अस्तिकायों में आकाश को छोड़कर शेष चारों लोक-व्यापी हैं। आकाश लोक एवं अलोक दोनों में व्याप्त हैं। गुरुत्व-लघुत्व की दृष्टि से पुद्गलास्तिकाय गुरुलघु भी हैं और अगुरुलघु भी, किन्तु धर्मास्तिकाय आदि शेष चार अगुरुलघु हैं। द्रव्य या संख्या की दृष्टि से पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय अनन्त द्रव्य रूप हैं, जबकि धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक द्रव्य रूप हैं। काल की अपेक्षा पांचों अस्तिकाय शाश्वत एवं नित्य हैं। वर्ण, रस, गंध और स्पर्श पुद्गलास्तिकाय में हैं अन्य में नहीं। गुण की अपेक्षा पांचों अस्तिकाय भिन्न हैं। धर्मास्तिकाय का गुण गति, अधर्मास्तिकाय का स्थिति, आकाशास्तिकाय का अवगाहन, जीवास्तिकाय का उपयोग (ज्ञान-दर्शन) और पुद्गलास्तिकाय का गुण ग्रहण करना है। इस प्रकार प्रत्येक अस्तिकाय का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण के आधार पर वर्णन किया गया है। धर्मास्तिकाय से जीवों में आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष और तीनों योग प्रवृत्त होते हैं। अधर्मास्तिकाय से उनमें स्थित होना, बैठना आदि की प्रवृत्ति होती है। आकाशास्तिकाय जीव एवं अजीव द्रव्यों का आश्रय रूप है। दो परमाणुओं से व्याप्त आकाश प्रदेश में सौ परमाणु तथा सौ करोड़ परमाणुओं से व्याप्त आकाशप्रदेश में एक हजार करोड़ परमाणु समा सकते हैं। जीवास्तिकाय से जीव आभिनिबोधिक आदि ज्ञानों, मतिअज्ञान आदि अज्ञानों तथा चक्षुदर्शन आदि दर्शनों की अनन्त पर्याय को प्राप्त होता है। पुद्गलास्तिकाय से जीवों के शरीर, इन्द्रिय योग और श्वासोच्छ्वास को ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है। प्रश्न यह उठता है कि क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को, दो, तीन, चार यावत् असंख्यात प्रदेशों को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है? इसके उत्तर में भगवान फरमाते हैं कि एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार चक्र का एक खण्ड; चक्र नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश न्यून तक को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेशों का समग्र रूप से जब ग्रहण होता है तभी उसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के भी समग्र प्रदेश गृहीत होने पर उन्हें उन-उन अस्तिकायों के रूप में कहा जाता है। पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों में द्रव्य, द्रव्यदेशादि आठ द्वारों का भी इस अध्ययन में विचार हुआ है। २६
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy