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64) उक्तं च
- धर्म रत्नाकरः
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लोकवद् व्यवहर्तव्यो लौकिको ऽर्थः परीक्षकैः । लोकव्यवहारं प्रति सदृशौ बालँपण्डितो ॥ ५१
65 ) ज्ञानात्स्वस्य ज्ञानदानं परेषां सर्व वित्तात्स्वस्य वित्तप्रदानम् । यस्मात्तस्मादात्मवज्जीववर्गश्चिन्त्यः शश्वन्नात्र' किंचित्प्रमृग्यम् ॥ ६
66 ) भानु भ्रष्ट हो यदि प्रभुमृतें राज्यं च संजायते
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राजीव च जलाशयेन रहितं चित्रं तथापाश्रयम् । भामापगतं कुलं यदि धराहीनस्तथानोकहः प्राणित्राणविवर्जितोऽपि नियतं जायेत धर्मस्तदा ॥ ७
[ २. ५*१
67) यथा शरीरं न हि जीववर्जितं मुखारविन्दं न यथापलोचनम् । दयाविहीनं क्रियमाणमर्थिभिर्न धर्मकर्मापि विराजते तथा ॥ ८
कहा भी है- पदार्थ का स्वरूप जैसा लौकिक जन मानते हैं वैसा ही परीक्षकों को भी मानना चाहिये । लौकिक व्यवहार के प्रति बाल और पंडित समान हैं । अभिप्राय यह कि तात्त्विक विवेचन का परीक्षक जन भले ही परीक्षा कर के प्रमाण या अप्रमाण माने, परंतु लौकिक व्यवहार को उन्हें जैसा कि वह प्रचलित है वैसा ही मानना चाहिये ।। ५१ ।।
जो अपने पास ज्ञान है उससे अन्यजनों के लिये ज्ञानदान तथा जो अपने पास धन है उससे अन्य जनों के लिये धन का दान देना चाहिये । सर्वं जीवसमूह को सदा अपने समान ही समझना चाहिये । इस विषय में अन्य कुछ विचार नहीं करना चाहिये ॥ ६ ॥
यदि कभी सूर्य के बिना दिन हो सकता है, राजा के बिना राज्य हो सकता है, जलाशय के बिना कमल उत्पन्न हो सकता है, आधार (भित्ति आदि ) बिना चित्र रह सकता है, पुरुष और स्त्री के बिना कुल चल सकता है तथा पृथ्वी के बिना वृक्ष उत्पन्न हो सकता है तो प्राणिरक्षण के बिना निश्चय से धर्म भी हो सकता है । तात्पर्य यह कि प्राणिदया के बिना धर्म असंभव है ॥ ७ ॥
जिस प्रकार जीवरहित शरीर ( शव ) शोभा नहीं पाता तथा नेत्ररहित मुखकमल शोभा नहीं पाता है उसी प्रकार धर्माभिलाषी जनों के द्वारा दया के बिना किया जानेवाला धर्म कार्य भी शोभा नहीं पाता है ॥ ८ ॥
५*१) 1 D° लौकिकार्थपरी. 2 D लोकानां व्यवहारं च सदृशी. 3 अज्ञान । ६) 1 नात्र कश्चित् विचारोज्ञः । ७) 1 दिनम् 2 प्रभुं विना 3 कमलम्. 4 अपगताश्रयं कुड्यादि - आश्रयरहितम् . 5 पुरुषं विना पुत्रं विना वा. 6 वृक्ष: 7 जीवरक्षादिरहितम् । ८ ) 1 नेत्ररहितम्. 2 पुरुषः 3 धर्मकार्यम् ।