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-१६. ५१२] - प्रोषधप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
"३२७ 1299) तदुक्तम्
सामायिकसंस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् ।
पक्षार्धयोयोरपि कर्तव्यो ऽवश्यमुपवासः ॥ ४*१ 1300 ) मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्यार्थे ।
उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय' देहादौ ॥ ४*२ 1301 ) मूरिदेवसविधे' स गृहयते यत्र नास्ति गणनायकः पुनः।
तत्र सद्विधिपुरस्सरत्वतः आत्मनेव गुरुदेवशासनात ॥५ 1302 ) श्रित्वा विविक्तवसति समस्तसावद्ययोगमपनीयं ।
सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥ ५*१ 1303) धर्मध्यानासक्तो वासरमतिवाह्य विहितसांध्यविधिः ।
शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायहतनिद्रः ॥ ५*२ उक्त चार प्रकार के आहार के परित्याग को उपवास कहा जाता है । (अभिप्राय यह है कि, उपवास के समय इन्द्रियाँ अपने अपने विषयों से विरत होकर धर्मकार्य में प्रवृत्त होती हैं। इसीलिये ' उपेत्य वसन्ति अत्र इति उपवासः' इस उपयुक्त निरुक्ति के अनुसार चार प्रकारके आहार के परित्याग का 'उपवास' यह नाम सार्थक समझना चाहिये) ॥ ४ ॥
कहा भी है
प्रत्येक दिन में आत्मापर आरोपित- अंकुरित किये गये - सामायिक के संस्कार को स्थिर करने के लिये दोनों पक्षाओं में (अर्थात् प्रत्येक पक्ष के दो दो अर्ध भागों में -दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी दिनों में) उपवास को अवश्य करना चाहिये ॥ ४*१ ॥
प्रोषधोपवास के पूर्व दिन-सप्तमी व त्रयोदशी-के अर्धभाग (मध्यान्ह ) में समस्त आरम्भकार्योंको छोडकर शरीरादि की ओर से निर्ममत्व होते हुए उपवास को स्वीकार करना चाहिये ॥ ४*२ ॥
वह उपवास आचार्य अथवा जिनदेव के पास ग्रहण किया जाता है। परन्तु जहाँ आचार्य अथवा जिनदेव नहीं है, वहाँ वह उत्तम विधि के अनुसार गुरुदेव को आज्ञा से स्वयं भी ग्रहण किया जा सकता है ॥५॥
उपवास को स्वीकार करनेवाले श्रावक को किसी एकान्त स्थान का आश्रय लेकर समस्त सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करते हुए सम्पूर्ण इन्द्रिय विषयों से विरत होना चाहिये तथा काय गुप्ति, मनोगुप्ति और वचनगुप्ति इन तीन गुप्तियों के साथ स्थित होना चाहिये ॥५*१॥
इस प्रकार से उसे धर्म ध्यान में आसक्त होकर दिन को - सप्तमी या त्रयोदशी के
४*२) 1D त्यक्त्वा । ५) 1 D समीपे । ५*१) 1 D एकान्तगृहम्. 2 D निराकृत्य । ५*२) 1 सामायिकादयः.2 रात्रि.3D निद्रारहितः।