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________________ ३२० - धर्म रत्नाकरः - [ १५.६७ 1271 ) काच्छिदां यातिं भिदां कुतश्चिद् बन्धावरौ हेमनि लोष्टके वा । चिन्ती परा नास्ति कणाववायें' रतस्य यातीव महीश सैन्ये ॥ ६७ 1272 ) सामायिकं वह्निरिवातिदीप्तं तृण्यां यथा कर्म दहेत्समग्रम् । उन्निनो' हन्ति यथान्धकारं मेघान्यथा चण्डविपक्षवायुः || ६८ 1273 ) अदो ऽनुगच्छन्ति समग्रलक्ष्म्यो यथा मयूखा' दिवसाधिनाथम् । यथा घुनीनार्थमपि स्रवन्त्यों यथा नार्थं सकला मराश्च ॥ ६९ 1274 ) घटिकादिनियतकालं यावज्जीवं त्वनियतकालीनम् । तद्भववारधि॑मथनं स्वशक्तितो नित्यमवलम्व्यमू ।। ७० सामायिक करते समय सामायिकी किसी के द्वारा यदि शरीर का छेदन या भेदन भी किया जाता है तो भी वह सामायिक के विचार को छोड़कर अन्य विचार नहीं करता है । उस समय बन्धु और शत्रु, सुवर्ण और मिट्टीका ढेला इन में रागद्वेष स्वरूप अन्य कोई चिन्ता उत्पन्न नहीं होती है । जैसे - कोई मनुष्य खेत में धान्य के कण चुनता था । वह उसके कार्य में इतना मग्न हो गया था कि उसके आगे से राजा का सैन्य चला गया था, परन्तु उसका उसे ज्ञान नहीं हुआ (अर्थात् आत्मस्वरूप के चिन्तन में तत्पर रहतों सामायिक है ) ॥ ६७ ॥ जिस प्रकार अग्नि अतिशय प्रदीप्त हो कर तृणसमूह को जला डालती है, उदित होता हुआ सूर्य जैसे अन्धकार को नष्ट कर देता है, तथा शत्रुस्वरूप प्रचण्ड और उल्टा वायु जिस प्रकार मेघों को छिन्न भिन्न कर देता है, उसी प्रकार सामायिक समस्त कर्म को नष्ट कर डालती है ॥ ६८ ॥ जिस प्रकार किरणें सूर्य का, नदियाँ समुद्र का और सर्व देव इन्द्र का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार सर्व संपदा यें सामायिक करनेवाले श्रावक का अनुसरण किया करती हैं। ( अर्थात् सामायिक परिणामों से पापका नाश व पुण्यकी प्राप्ति होती है, जिससे उसे समस्त सम्पत्तियों का लाभ होता है ) ॥ ६९ ॥ वह सामायिक नियतकालिक और अनियत कालिक के भेदसे दो प्रकार की है। उनमें जो घडी आदिरूप कुछ नियत काल के लिये धारण की जाती है, वह नियतकाल ६७) 1 याति सति. 2 सामायिकरतस्य पुरुषस्य सामायिकप्रस्तावे मही वा संन्ये बाणारोपणप्रस्तावे रतस्य पुरुषस्य काये च्छिदां भिदा इत्यादौ सति सामायिकं त्यक्त्वा तथा बाणारोपणं त्यक्त्वा परिचिन्ता नास्ति 3 सामायिक कर्पूरपरचिन्तास्ति. 4 बाण समवाये याति सति इति दृष्टान्तः, D राजसैन्य कोलाहले .5 D ६८ ) 1D तृणसम्हम् 2P सूर्य:, D भानुः । ६९ ) 1 किरणा: 2 P सूर्यम्, Dभानुम्. 3 PD समुद्रम् 4 नद्यः 5 दिवसम्, D इन्द्रम् । ७० ) 1 संसारसमुद्रस्य ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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