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________________ २४४ - धर्म रत्नाकरः - 955) प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि । आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसा' निजानुभावेन || ४*४ 956 ) एकः करोति हिंसां भवन्ति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति' हिंसां हिंसाफलभुग्भवत्येकः ।। ४*५ [ १२. ४*४ उत्कट फल को देती है । और इस के विपरीत दूसरे के लिये वही ( कषाय की मन्दता के कारण ) अल्प फल को ही देती है । इसी प्रकार उक्त हिँसाकर्म में दोनों की सहायता करने वाले दो व्यक्तियों के मध्य में भी फलदान के समय में तीव्र व मंद परिणामों के अनुसार विचि त्रता को - फल की होनाधिकता को प्राप्त होती है | ४ ३ ॥ किसी जीव के लिये प्राणघात करने के पूर्व में ही वह हिंसा अपना फल दे दिया करती है । उदाहरणार्थ किसीने जीवघातका संकल्प तो किया, परन्तु उस समय वह उसे कर नहीं सका, किन्तु दीर्घ काल के पश्चात् उसे संपन्न कर सका; ऐसी अवस्था में हिंसा तो हुई पश्चात् पर फल पूर्व में ही प्राप्त हो गया ) । किसी जीव के लिये वह हिंसा जीवघात करने के समय में ही फल दिया करती है । (जैसे कोई जीव जिस समय किसी के प्राणघातका विचार करता है और संयोग से यदि वह उसे उसी समय में संपन्न भी कर लेता है तो उसे हिंसाकाल में ही पाप का बन्ध हो जाता है । अतः हिंसाकाल में ही उसे फल प्राप्त हो गया ) । कभी वह हिंसा जीवघात संपन्न होने के पश्चात् फल दिया करती है । ( उदाहरण स्वरूप किसी ने अन्य की प्रेरणा से जीववध तो कर दिया, पर स्वयं उसका वैसा विचार नहीं किया था; किन्तु कालान्तर में उसने अपने द्वारा संपन्न किये गये उस अवस्था में उसे हिंसा कर चुकने के पश्चात् उसका फल प्राप्त करना प्रारंभ तो करता है उसका संकल्प मात्र तो करता है परन्तु योग्य अवसर न प्राप्त होने से वह उस हिंसा को संपन्न नहीं कर पाता है, ऐसी अवस्था में हिंसा तो हो नहीं सकी, परन्तु पापबन्ध स्वरूप उसका फल उसे प्राप्त हो ही गया । इस प्रकार प्राणी अपने परिणामविशेष से हिंसा का फल कभी पूर्व में, कभी उसी समय में, कभी पश्चात् और कभी उस हिंसा के संपन्न करने के विना भी उस के फल को प्राप्त किया करता है || ४*४॥ जीववध को योग्य माना, ऐसी होता है) इसी प्रकार कोई हिंसा - कभी हिंसा तो करता है एक जीव और उस हिंसा के फल के भागी होते हैं अनेक अनुमोदक जीव | इसके विपरीत कभी हिंसा तो करते हैं अनेक जीव (जैसे सैनिक वर्ग ) और फल प्राप्त होता है एक जीव को (जैसे- राजा ) ॥ ४५ ॥ ४*४) 1 परिणामे. 2 फलकाले. 3 कृतापि द्रव्यहसा 4 भावहिंसा ४*५ ) 1 कुर्वन्ति ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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