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२४२ - धर्मरत्नाकर:
[१२. ३२१९946) युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणीतः ।
न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥ ३*१९ 947 ) व्युत्थानावस्थायां रागादीनां तु संप्रवृत्तीनाम् ।
म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥ ३१२० 948 ) यस्मात्सकषायः सन हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् ।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥ ३*२१ 949 ) हिंसाया अविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा ।
तस्मात्पमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥३*२२
इसीलिये जो योग्य आचरण कर रहा है-गमनागमनादि कार्यों में जीवरक्षा के अभिप्राय से सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति कर रहा है- उसके मन में राग-द्वेषरूप अभिप्राय के न होने से केवल द्रव्यप्राणों का विनाश करने से ही हिंसा-तज्जनित पापबन्ध - कभी भी नहीं होती है ॥ ३*१९॥
विरोधी अवस्था में रागद्वेषादि प्रवृत्तियों के विद्यमान रहने से जीव चाहे मरे या न भी मरे, परन्तु हिंसा निश्चय से आगे दौडती है । ( रागद्वेषादि के वशीभूत हो कर अथवा असावधानी से भी व्यवहार कार्य में प्रवृत्त होने पर कदाचित् जीवघात न भी हो तो भी हिंसाजनित पाप का बन्ध होता ही है ) ॥ ३*२० ॥
इसका कारण यह है कि वेसी अवस्था में क्रोधादि कषाय के वशीभूत जीव प्रथमतः स्वयं अपने आपका ही घात करता है-अपने क्षमा एवं मार्दवादि रूप समीचीन भावों को नष्ट करता है । तत्पश्चात् अन्य प्राणियों का घात हो भी सकता है और कदाचित् वह नहीं भी होता है ।। ३*२१ ॥
हिंसा से विरत न होना और उस हिंसा में परिणत होना-तद्रूप प्रवृत्ति करना-ये दोनों हिंसा ही हैं । इसलिये जीव के प्रमादयुक्त होने पर निरन्तर प्राणव्यपरोपण-भाव प्राणों का विघात-होता ही है ॥ ३*२२ ॥
३*१९) 1 प्रवेशम्. 2 PD विना । ३*२०) 1 व्युत्पत्ति । ३*२१) 1 परेषां प्राणिनाम् । ३*२२) 1 प्रमादयोगात्. 2 अयत्नाचरणे प्रागविनाशनं नित्यं भवति ।