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हैं रज रामदुहाई' का स्मरण कराता है। ___ आवश्यकता इस बात की है कि अन्धों की आख में धूल झोंकने वाले इन कलि-प्रचारकों से जन साधारण को जागृत किया जाय. और उसका एक ही उपाय है कि जनता को इस प्रकार का साहित्य दिया जाय जिससे वह मार्गदर्शन कर सके।
इसमें १२३४ उपवासों की व्यवस्था है। इन उपवासों को किस विधि से करना चाहिए और ये कितने समय में पूर्ण होने चाहिए इत्यादि सम्पूर्ण विधि-विधान का इसमें दिग्दर्शन है। इस विधान को करने से जिन पौराणिक महापुरुषों ने फल प्राप्त किया है उसकी सुन्दर कथा भी दी है। सभी उपयास तेरह प्रकार के चारित्र से संबंधित हैं। ये तेरह प्रकार के ५ महाव्रत, ५ समिति और ३ गुप्ति हैं। इनमें से किस चारित्र से संबंधित कितने उपवास हैं उनकी गणना दी है। इस विधान का स्रोत हरिवंश पुराण का ३४ वां सर्ग है। विधान के अन्त में लिखा है।
त्रयोदशविधस्यैव चारित्रस्य विशुद्धये !
विधौ चारित्रशुद्धो स्युरुपवासा - प्रकीर्तिता । । १०६ ।। तेरह प्रकार के चारित्र की शुद्धि के लिए इस चारित्र शुद्धि विधान में उक्त उपवासों का कथन किया।
इस तरह इन उपवासों का फल तेरह प्रकार की चारित्र शुद्धि है। शुद्ध चारित्र का पालन करते हुए तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होना स्वाभाविक ही है। यही कारण है कि कथा के प्रारंभ में सम्राट श्रेणिक द्वारा तीर्थंकर प्रकृति बंध के कारणों को गौतम गणधर से पूछा गया है।
पुस्तक समयोपयोगी है और चारित्र पालन के लिए विशुद्ध प्ररेणा देती है।
पमा