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________________ फत हा भवनत्रिक = भवनवासी १, व्यंतरवासी १, ज्योतिषी वर्ण चतुष्क स्पर्श १, रस १, गंध १, वर्ण १ ये १ये ३ जानना 1 ४ जानना। भाव लेश्या = मोहनीय कर्म के उदय से, उपशम से, वाम = मिथ्यात्व को बाग कहते हैं । क्षय से अथवा क्षयोपशम से जीव की जो चंचलता होती विष्यात संघमण-मन्द विशुद्धता वाले जीव की, है उसे भाव लेश्या जानना । स्थिति अनुभाग के घटाने रूप भूतकालीन स्थिात कांडक भिन्न मुहतअन्तर्मुहूर्त के उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य और अनुभाग कांडक तथा गुग श्रेणी ग्रादि परिणामों ऐसे सीन प्रकार जानना दो घड़ी प्रर्थात् '४- मिनट का में प्रवृत्ति होना विध्यात संक्रमण है । एक मुहर्त होता है, इनमें से एक समय घटाने से ४८-१ ( गा० ४१३ देखो। =उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है और एक पावली+१ विधान = वस्तु के प्रकार या भेदों को विधान समय-जघन्य अतिमहतं होता है इन दोनों के बीच में कहते हैं। के काल में मध्यम अन्तर्मुहर्त असंख्यात होते हैं इन्हीं विशेष चय को विशेष कहते है। को भिन्न मुहूर्त कहते हैं। वेदक योग्य काल= उपशम योग्य काल शब्द मनुष्य द्विक = मनुष्यगति १, मनुष्यगत्यानुपूर्वी १ ये देखो। २ जानना। वेदनीय - जो सुख दुःख का बेदन अर्थात् अनुभव मार्गणमा को पार मोक करावे वह बेदनीय कर्म है। ( मा०२१ देखो) अवस्थाओं में स्थित जीवों का ज्ञान हो, उन्हें मार्गग्गा वैक्रियिकतिक = वैक्रियिक शरीर १, वक्रियिक प्रगोस्थान कहते हैं। पाग १ ये २। मोहनीय - जो मोहै अर्थात् असावधान (प्रचेत) करे बंकियिक षटक =देवगति १, देवगत्यानुपूर्वी १, यह मोहनीय कर्म है । ( गा० २१ देखो) नरक ति १, नरकगत्मानुपूर्वी १, वैऋियिक शरीर १, योनि कन्द, मूल, अण्डा गर्म, रस, स्वेद आदि की वैक्रियिक अंगोपांग १, ये ६ जानना । उत्पत्ति के प्राधार को योनि कहते हैं । युधित्ति = बिछुड़ने का नाम ब्युम्धिति है मर्यात राग= अनन्तानुबन्धी माया ४, लोभ ४, बेद ३, जुदा होना। हास्यरति २, इनके उदय से जो भाव होता है उसे राग शतार चतुष्क-तिर्यच गति १, तिथंच गत्यानुपूर्व्य कहते हैं। १. तिथंचायु १, उद्योत १ ये ४ जानना । वर्ग- अविभाग प्रतिच्छेद शब्द देखो। समय प्रबद्ध=एक समय में बंधने वाले परमाणु समूह वर्गा-प्रविभाग प्रतिच्छेद शब्द देखो। को जानना । ( गा०४ देखो) . वस्व-जिस शास्त्र में अंग के एक अधिकार का सभ्यस्व गण-संसारी जीव पदार्थ को देखकर अर्थ (पदार्थ) विस्तार से या संक्षेप में कहा जाय उसे वस्तु जानता है गीचे सप्त भंग वाली नयो से निश्चयकर कहते हैं । ( गा० ८) श्रद्धान करता है इस प्रकार दर्शन, शान और श्रद्धान वासमा काल=किसी ने क्रोध किया, पीछे वह दूसरे करना सम्यक्त्व गुण कहा है। ( मा०१५ देखो) काम में लग गया। यहां पर क्रोध का उदय तो नहीं है, सर्व संक्रमण =जो अन्त के कांड की अन्त को परन्तु जिस पुरुष पर कोष किया था उस पर क्षमा भी की फलि के सर्व प्रदेशों में से जो अन्य प्रकृति रूप नहीं नहीं है। इस प्रकार जो क्रोध का संस्कार चित्त में बैठा हुए हैं उन परमाणुषों का अन्य प्रकृति रूप होना वह सवं हुमा है उसी को वासना का काल कहा गया है। संक्रमण है। (गा०४१३ देखो)
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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