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________________ (३) इन भावों के सेवरूप उशर भावों को कहते हैं : : ( देखो गो० क० ना० १६ से ८६ और को० नं० २३२ ) मूलभा १. प्रोपशमिक २. क्षायिक ३. मिश्र या क्षयोपशमिक ४. प्रौदयिक ५. पारिणामिक उत्तर भेव संख्या २ ६ १५ ( 16192) २१ उत्तर भेदों के नाम उपवास सम्यक्त्व १, उपशम चारित्र १ ये २ जानना । कि ज्ञान १ क्षायिक दान १ क्षायिक वीर्य १, ये क्षायिक दर्शन १, क्षायिक सम्यस्य १, क्षायिक लाभ १, क्षायिक भोग १, जानना । क्षायिक चारित्र १, क्षायिक उपभोग १, कुमति ज्ञान, कुत ज्ञान, कुपवधि ज्ञान मे ३ कुज्ञान (ज्ञान) | मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, प्रवधि ज्ञान मनः पर्यय ज्ञान, ज्ञान प्रदर्शन, दर्शन, भवधि दर्शन, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य मे ५ क्षयोपशम लब्धि, क्षत्रोपयाम (वेदक ) सम्यक्त्व १, सराग चारित्र १, संयम १, ये सब १८ भाव जानना | नरक, सिच, मनुष्य, देव ये ४ गति, नपुंसक, स्त्री पुरुष, ये द ( लिंग ), कोष, मान, माया, लोभ, ये ४ कषाय, मिथ्यास्य ९, कृष्ण, नील, कापोस पीत्र, पद्म, शुक्ल ये ६ लेश्या, भसंयम १ अज्ञान १, प्रसिद्धत्व १, ये २१ भाव जानना 1 भव्यत्व १, प्रभव्यत्व १ जीवस्व १ ये ३ जानना । इस प्रकार मूलभाव ५ और उत्तर भेदरूप भाव ५३ जानता । बताते हैं (४) रंगों की अपेक्षा से भावों के मे गुणस्थानों में और मागंणा स्थानों में स्थापना करके प्रभावों के अन संचार (भेदों के बोलने के विधान) के समान अर्थात् भावों की उलटापलट करने से यहाँ पर भी १ प्रत्येक मंग, १ विश्व परसंयोगी भंग प्रौर १ स्थसंयोगी भी भंग समझने चाहियें। संभवते मूलभाष मौर उत्तर भावों को १. प्रत्येक भंग – अलग एलग भावों को प्रत्येक भंग कहते हैं मौर जिनमें संयोग पाया जाय उनको संयोगी भंग कहते हैं। संयोगी भंग दो प्रकार के हैं- परसंयोगी और स्वसंयोगी । २. स्वसंयोगी भंग - जहां पपने ही एक उत्तर भेद का दूसरे उत्तर भेद के साथ संयोग दिलाया जाय उसको स्वसंयोगी भंग कहते हैं। जैसे एक श्रमिक के भेद का दूसरे श्रपशमिक के ही भेद के साथ. प्रथवा एक भोयिक भेद के साथ दूसरे मौदधिक भेद का ही संयोग कहना । ३. परसंयोगी भंग - जहां दूसरे उत्तर भेद के साथ संयोग दिखाया जाय उसको परसंयोगी मंग कहते हैं । जैसे प्रोपशमिक के एक भेद के साथ मौदयिक के एक भेद का संयोग दिखाना, मथवर एक प्रौदयिक भेद के साथ दूसरे क्षामिक भेद का संयोग दिखाना । इत्यादि (देखो गो० क० गा० ८२० )
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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