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________________ १३) प्रासव के उदय कार्यभूत जीय के परिणामों में ज्ञानावरणादि कर्मबंध का कारणपना प्रथांत पाठ कर्मों की मानवों के विशेष भाव बतलाते हैं । ( देखो गो० के० गा० १०० से १०) मूल कर्म प्रचलियां मानवों के विशेष भागव १ प्रत्यनको से पर्याद शास्त्र या शास्त्र के जानने वाले पुरुषों में । १ ज्ञानावरण २ दर्शनावरण अविनयं रूप प्रवृति करने से, २. अन्तराय -ज्ञान में विच्छेद करने से, ३ उपधात प्रशस्त ज्ञान में देष रखने रूप उपबात से,.४ प्रदोष = तत्वज्ञान में हर्ष नहीं मानने रुप प्रवष से, ५ निन्हव - जिनसे अपने को ज्ञान प्राप्त हुपा है उनको छिपाकर अन्य को गुरु कहना रूप निन्हब से, .६.प्रासादना=किसी के प्रशंसा योग्य उपदेश की तारीफ न करमे रूप प्रासादना से स्थिति और अनुभाग बंध की बहुलता के साथं ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण इन दो कमों को बांधता है ये ६ कारण ज्ञान के विषय में हो तो ज्ञानावरण के बंध के कारण और जी दर्शन के विषय में हो तो दर्शनावरण के बंध के कारण होते हैं, ऐसा जानना। ३ वेदनीय कर्म .. ( साता प्रसाता.) १ भूतानुकम्पा सब प्राणियों पर दया करना, २. व्रत-अहिंसादि वत पालन करने रूप, ३. योग=शुभ परिणाम में एकाग्रता रखने रूप, ४. क्षमाभाव=ोध के त्याग रूप क्षमा, ५. दान-माहारादि चार प्रकार का दान, ६.पंच परमेष्टि की भक्ति कर जो सहित हो ऐसा जीच बहुधा करके प्रचुर अनुभाग के साथ सातावेदनीय को बांधता है, इससे विपरीत अदया भाविकाधारक जीव तीव्र स्थिति अनुभाग सहित असाता वेदभीय कर्म का बंध करता है। ४ मोहनीय (१) बर्शन मोहनीय मरहत, सिद्ध चैत्य (प्रतिमा), तपश्चरण, निर्दोष शास्त्र, नियगुरु, वीतराग प्रणित धर्म और मुनि प्रादि का समूह रूप संघ-इनसे जो बीय प्रतिकूल हो अर्थाद इनके स्वरूप से विपरीतता का ग्रहण करे वह दर्शन मोह को बांधता है। . (२) चारित्र मोहनीय जो जीव तीन कषाय और हास्यादि नोकषाय सहित हो, बहुत मोह रूप परिणमता हो, राग पोर द्वेष में प्रत्यंतलीन हो तथा चारित्र गुण के नाम करने का जिसका स्वभाव हो ऐसा जीव कषाय और नोकषाय दो प्रकार के चारित्र मोहनीय कर्म को बांधता है।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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