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________________ [ ७२७] उदय से जुदे-जुदे हाड नसों से बंधे हों, परस्पर (आपस में) कीले हुए न हों यह असंप्राप्ता पाटिक संहनन है । क्योंकि अप्रामानि ( श्रापस में नहीं मिले हों) सृपाटिकावत् संहननानि यस्मिन् (सर्प की तरह हाड जिसमें ) तत् ( वह श्रसंप्राप्त सृपाटिका संहननम् (श्रसंप्राप्त सूपाटिका संहनन शरीर है)' ऐसा शब्दाथ है । ६. वर्ण नामकर्म-जिसके उदय से शरीर में रंग हो वह वर्णनामकर्म है | उसके पांच भेद हैं- (c) कूलवर्ण नामकर्म । (८६ नीलवरा नामक्रमं । (६०) रक्तवर ( लाल रंग ) नामकर्म । (६१) पीतवसा (पीला रंग ) नामकर्म । (२) श्वेत वर्ण ( सफेद रंग ) नामकर्म । १० गन्ध नामकर्म जिसके उदय से शरीर में गंध हो उसे गन्ध नामकर्म कहते हैं। वह दो तरह का है -- (१३) सुरभिगन्ध ( सुगन्ध) नामकर्म । (६४) असुरभिगन्ध (दुर्गंध) नामकर्म । ११. रस नामकर्म जिसके उदय से शरीर में रस हों उसे रस नामकम कहते हैं। वह पांच प्रकार का है - (६४) तिफरस ( तीखा चरपरा ) नामकमं (६६) कटुक (कडा) रसनामकमं । (१७) कवाय (कला) रस नामकर्म ६८ ) प्राम्ल ( खट्टा ) रस नामकर्म (९६) मधुर रस ( मीठा ) नामक । -- १२. स्पर्श नामकर्म-जिसके उदय से दारीर में स्पर्धा हो वह स्पर्श नामकर्म है उसके आठ भेद है (१००) कंदर स्पर्श (जो छूने में कठिन मालूम हो ) नामकर्म (१०१) मृदु (कोमल) नामकर्म (१०२) गुरु (भारी) नामकर्म (१०३) सघु (हलका ) नामकर्म (१०४) शीत (ठंडा) नामकर्म (१०५) उष्ण (गर्म ) नामकम (१०६) स्निग्ध ( चिकना ) ना.. कर्म (१०८) रुक्ष ( रूखा नामकर्म । श्रानुपुष्यं नामकर्म जिस कर्म के उदय से मरण के पीछे और जन्म से पहले अर्थात् विग्रहगति ( बीच की अवस्था) में मररण से पहले के के आकार श्रात्मा के प्रदेश रहें, अर्थात् पहले शरीर के आकार का नाश न हो उसे आनुपूयं नामकर्म कहते हैं। वह चार प्रकार का - (१०८) नरकगति प्रायोग्यानुपूष्यं नामकर्म जिम कर्म के उदय से नरकगति को प्राप्त होने के सन्मुख जीव के शरीर का प्रकार ितियों में पूर्व शरीराकार रहे उसे नरक प्रायोग्यानुपूव्यं नामकम कहते हैं । (१९) तियंचगति प्रायोग्यानुपुष्यं नामकर्म - ( ११०) मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्थं नामकर्म (१११) वेवगति प्रायोग्यानुपूर्व नामकर्म मो ऊपर की तरह जानना । १४. विहापोगति नामकर्म जिस कर्म के उदय से ग्राकाश में गमन हो उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं। उसके दो भेद हैं- (११२) प्रदास्तविहायोगति (शुभगमन) नामकर्म ( ११३) अप्रशस्तविहायोगति ( शुभमन ) नामकर्म | (११४) अगुरु नामकर्म जिस कर्म के उदय से ऐसा शरीर मिले जो लोहे के गोले की तरह भारी और याक की रुई की तरह हलका न हो उसे अगुरुलघु नाम, कर्म कहते हैं । (११२) उपधात नामक्रम — जिसके उदय से बड़े सींग, लम्बे स्तन, मोटा पेट इत्यादि अपने ही घातक अग हों उसे उपघात नमक कहते हैं। (उपेत्यधातः उपघातः श्रात्मघात इत्यर्थः । (११६) परात नामकर्म जिसके उदय से लोग सींग, नख, सर्प आदि की दाउ, इत्यादि परके घात करने वाले शरीर के अवयव हों उसे परघात नमकुम कहते हैं । ( ११७) वास नामकर्म-जिस कर्म के उदय सेवासोच्छवास हो उसे उच्छ् वास नामकर्म कहते है । (११) तप नामकर्म -जिसके उदय से परको आतप करने वाला शरीर हो वह आत नाम में है। (११) उद्योतनामयमे जिस कम के उश्य से उद्यतरूप (मातापरहित प्रकाशरूप) शरीर हो उसे उत नामकर्म कहते हैं। इसका उदय चन्द्रमा के निम्न में और श्रभिया ! जुगुनू यादि जीवों के हैं। (१२०) श्रम नामकर्म -जिसके उदय से दो इन्द्रि १. इसका उदय सूर्य के बिम्ब में उत्पन्न हुए पृथ्वीकामिक जीवों के होता है ।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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