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________________ ये चौबीसों दण्डक कहे, परमपद नहे । इन त्यान इनमें से सो जगको जीव इनसे तीरे सो त्रिभुवन-पोव । ५३॥ जीव इसमें और न भेद, ये कभी से कर्म-उच्छेद । कर्म बंध जों लों जगजंत, नायत कर्म होय भगवन्त ॥५.३. [ ७०५ ] (--eter) मिथ्या श्रव्रत जोग प्ररु, मद परमाद कषाय । इन्द्री विषय जुरागिये अप दूर हो जाय ॥५१॥ जिन बिन गति बढ़ते घरी, भवी नहीं मुलकार । जिन मारग उर परिके लहिये भवदधि पार ।। ५६ ।। जिन भज सब परपच जन बड़ी बात है येह । पंच महाव्रत धारिके भव जल को जल देह ॥ ५७॥ अंतः करण जु युद्ध है, जिनधरमी अभिराम । भाषा भविजन कार, भाषी दौलतराम ||१८|| -::-- सूचना-संशोधक का यह कहना है कि इस चौबीस दण्ड की दो-तीन प्रतियां दिखती है, उन तीनों की कवितायें कई जगह पाठान्तर जान पड़ती है, परन्तु मूल भाव में कुछ भी भेद नहीं है।
SR No.090115
Book TitleChautis Sthan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagarmuni
PublisherUlfatrayji Jain Haryana
Publication Year1968
Total Pages874
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & Karm
File Size16 MB
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